आज(२९ जून २०१६ के जनसत्ता में दिनेश कुमार का आलोचना के संकट पर एक लेख छपा है ,जिसमें चरित्र के संकट को सबसे गंभीर संकट माना गया है .सम्बन्धों पर आलोचना लिखने का गंभीर आरोप है .लेकिन थोडा विचार करने पर मुझे लगा कि दिनेश कुमार जी नें अख़बार या संपादक के संकट को ही आलोचना का संकट समझ लिया है .पूरा लेख सम्पादकीय अनुभव को ही व्यक्त करता लग रहा है .इस समस्या को ऐसे समझा जाना चाहिए .जब कोई फिल्म रिलीज होती है तो किसी को भी पता नहीं होता कि फिल्म अच्छी है या बुरी .शुरूआती दर्शक जिज्ञासा वश जाते हैं और धीरे-धीरे चर्चा शुरू होती है कि फिल्म अच्छी है तो बाक्स आफिस पर हिट हो जाती है और विपरीत चर्चा होने पर फ्लॉप . यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कि लन्दन में पहली बार रेल चलने पर लोगों को रूपए देकर बैठाया गया था .किसी नयी किताब के साथ भी ऐसा ही है .कोई क्यों बिना जाने कि उस कृति को पढ़ाने पर पाठकीय अनुभव क्या निकलेगा -नयी किताबों की भीड़ में पुस्तक को पढ़ते रहने का श्रम करेगा .दिल्ली का मेरा अनुभव यह है कि क्योंकि समीक्षा लिखना द्वितीयक होने से मौलिक लेख लिखने और छपने की तुलना में अधिक आसान होता है इसलिए अधिकांश समीक्षक तो अपने कैरियर के प्रारंभिक दौर में मंहगाई और जेब को ध्यान में रखकर लिख रहे होते हैं .उसके बाद किसी प्रसिद्द और विज्ञापित समझदार से लिखवाने की कोशिश होती है . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो समीक्षक के लिए भी पेशेवर रूप से ही पहला पाठक होना स्वैच्छिक न होकर अनैच्छिक ही होता है. ऐसी स्थिति में एक आदर्श समीक्षक का होना एक सैद्धांतिक कल्पना ही है .अपने लेखन में दिनेश कुमार जी यदि यह सुझाव देते तो अच्छा रहता कि हर अखबार और पत्रिका को अपने यहाँ पत्रकार के साथ-साथ वेतन भोगी समीक्षकों की भी नियुक्ति करनी चाहिए .स्थिति इस लिए भी बुरी है कि सारा मामला हिंदी में समीक्षकों के वकीलों जैसा अनियतकालिक लेखक होने का है .अब अच्छा वकील तो हर कोई करना चाहेगा कि कहीं मुक़दमा ही न हार जाए .मैं व्यक्तिगत रूप से प्रारंभ से ही आलोचक और समीक्षक बनने से परहेज करता रहा हूँ .मैंने १९८९ में पढ़ते समय प्रकाशित अपनी पहली आलोचना पुस्तक का नाम 'दूसरा पाठकनामा 'रखा था .पाठकनामा भी प्रकाशित करने की योजना थी लेकिन नौकरी मिल जाने से अपनी शर्तों पर सोचने में लग गया .जनसत्ता में ही सुरेश शर्मा / अवस्थी ! नें उसकी समीक्षा लिखी थी .बाबरनामा की तर्ज पर मेरे द्वारा प्रयोग किया गया यह नाम आज हिन्दी जगत नें स्वीकार कर लिया है .दैनिक जागरण और शुक्रवार आदि में यह एक सम्मानित स्तम्भ है .पाठकनामा नाम का एक ब्लॉग भी एक सज्जन चला रहे हैं .लम्बे आलस्य के बाद इधर मैंने सोचा है कि जरुरी लेखकों पर एक अपना आलोचनात्मक चयन और पाठ तैयार करूँगा लेकिन पहला पेशेवर पाठक यानि समीक्षक बनना अब भी नहीं चाहता .मैंने कुछ सफल एवं जरुरी लेखकों की सफलता के कारणों की पड़ताल के लिए ही कुछ समीक्षाएं लिखी हैं .जैसे कि इधर शिवमूर्ति जी की .सिर्फ साहित्य के विश्लेषण की समझदारी बढ़ाने के लिए ही .क्योकि साहित्य पढ़ाता हूँ इसलिए ऐसा करना कर्तव्य रूप में जरुरी लगता है .मैं नहीं चाहता कि मेरे सम्पादक मित्र किसी कृति को पहली बार पढ़ने का जोखिम लादें .मुझे दिनेश कुमार के निष्कर्षों के विपरीत रचनाकारों पर संबंधों के आधार पर भी समीक्षा निकाल पाने पर सहानुभूति है .क्योंकि बहुत सी ऐसी पुस्तके और लेखक हैं जिनकी समीक्षाए संबंधों के आधार पर भी नहीं निकलतीं .