Tuesday, 11 October 2016

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र
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हिंदी समाज की सबसे बड़ी समस्या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो वह वनमानुष या औरंगउटान है जो जब तब हमारी बोलचाल की भाषा में हमारी अचेतन आदत का हिस्सा बना बाहर आ ही जाता है . भाषा का सबसे असभ्यतम हिस्सा उन गालियों का है.जो स्त्री जाति की लैंगिक समानता और सम्मान पर आधारित न होकर असमानता और अपमान पर आधारित हैं. उनमें कुछ ऐसा अचेतन छिपा है जैसे स्त्री होना दूसरे दर्जे का नागरिक होना है और अपमान की विषय-वस्तु है.भाषा में शब्दों के बाद भेद-भाव वाली भाषा की अभियांत्रिकी व्याकरण के स्तर पर मिलती है.प्राचीन काल जब भारत में स्त्री-पुरुष असमानता का भेद-भाव बहुत नहीं था तब भाषा भी बहुत विभेदकारी नहीं थी और राम तथा सीता दोनों के साथ 'गच्छति लग सकता था. मध्यकाल में इस्लाम के भेदकारी संस्कार नें राम और सीता को अलग-अलग 'जाता-जाती' कर दिया.
हिंदी में भाषिक असमानता,अपमान और अमानवीयता का सर्जक कबाड़ जातीय पूर्वाग्रहों के प्रचारक शब्दों में भी छिपा है.जिसे मानसिक रूप से कुछ पिछड़े लोग लज्जित होने के स्थान पर समूह-आपराधिक ढंग से अगड़ा होने का साधन समझते हैं.क्योंकि कुछ लोग ऐसी अनैतिक विरासत से असभ्यी सुख-लाभ करना चाहते हैं .इसलिए अवैध हथियारों की तरह उनका इश्तेमाल करना गर्व की वस्तु समझते हैं. राजनीति के अतिरिक्त भाषा ही इस विषमता की सबसे सशक्त प्रचारक है. ये वर्जित, निन्दित और घृणित शब्द यथार्थ में तो नहीं किन्तु आभासी रूप में असमनातावादी श्रेष्ठता का भ्रम सृजित करते रहते हैं.
यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि एशियाई मूल कीहिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के धर्म अन्त:;उपस्थित पुरोहितवादी सामूहिक अचेतन के कारण अपनी जाति और व्यक्ति केन्द्रित महिमामंडन के सांप्रदायिक प्रयास में सम्पूर्ण मानव-जाति की सृजन और अस्तित्वपरक संभावनाओं का मजाक उड़ाते हैं और उनकेप्रति अनास्था व्यक्त करते हैं.बहुत से लोग जो पिछले ज़माने के आध्यात्म के सामंती पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाते वे नहीं समझ पाते कि उनके आध्यात्म का भी कोई आपराधिक चेहरा हो सकता है और वह उनके महान ईश्वर को ही अप्रतिष्ठित करता है .उदहारण के लिए शूद्र भी एक आध्यात्मिक श्रेष्ठता की अवधारणा का ही अवधारणात्मक और वैचारिक प्रति-पक्ष है. ईश्वर के नाम पर विकसित यह जातीय दंभ भी दूसरों में हीनता का प्रचार कर स्वयं को अनैतिक रूप से महिमा-मंडित करता है. हिदुत्व केसाथ-साथ इस्लाम भी ऐसी ही आध्यात्मिकता को लेकर मानवता विरोधी होने का अभिशाप झेल रहा है..हिन्दुओं में जहाँ सत्य (और ईश्वर को भी ) को जाति का बंधुआ बनाया गया है वहीँ इस्लाम सिर्फ एक ही महान व्यक्ति की गवाही पर आधारित है .इस अवधारणा में किसीदूसरे मनुष्य की संभावित महानता का निषेध भी छिपा है. मेरी दृष्टि में यह संरचना श्रद्धेय के परिवार की पुरोहितीय पृष्ठभूमि के कारण ही है.जिसके कारण भावी मानव जाति के भी किसी भी मनुष्य की ईश्वर से साक्षात्कार की सैद्धांतिक गुंजाइश नहीं बचती. मेरा मानना है कि व्यक्तिगत रूप से कोई कितना भी बुद्धिमान हो ले उसे अपनी बुद्धिमानी की सृष्टि के लिए और भविष्य की बुद्धिमानी के लिए भी मानवजाति की सृजनात्मक संभावनाओं पर आस्था रखनी ही चाहिए. किसी एक व्यक्ति की तुलना में सम्पूर्ण मानव-जाति अधिक श्रद्धास्पद और महिमाशाली अस्तित्व है.
हिंदी में मिलने वाले बहुत से अपशब्द तो आध्यात्मिक मूल के धातु एवं अर्थों को छिपाए हुए हैं- जैसे चूतिया शब्द को ही लें तो इसके पीछे संस्कृत का च्युत शब्द है जिसका अर्थ है गिरा हुआ या पतित लेकिन अर्थ-परिवर्तन से यह आध्यात्मिक पतन कराने वाली स्त्री से जोड़ दिया गया है . इसी तरह दो- तीन दिन पूर्व मेरे एक अभिन्न मित्र नें मेरे शब्द - ज्ञान में यह कहकर इजाफा किया कि जिस छक्का को मैं छ: से बना मानता हूँ वह अपने पीछे हिजड़े का अर्थ भी छिपाए हुए है . यह सच है कि इस अर्थ के लिए भी हिंदी समाज ही जिम्मेदार है - लेकिन यदि ऐसा एक असभ्य समाज नें दिया है तो हमें उसके प्रचलन का निषेध करना चाहिए. लेकिन इस ज्ञानार्जन में एक बात मुझे खटकी. वह यह कि जैविक हीनता याजीनेटिक विकृति के शिकार किसी लैंगिक विकलांग को उसकी हीनता के लिए इसप्रकार अपमानित करना चाहिए जिस प्रकार हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हुए हम करते हैं. मित्र में भी मुझे हिजड़ा को हिकारती दृष्टि से देखने वाला परंपरागत असावधान मध्ययुगीन अचेतन व्यक्त होता दिखा . मुझे अष्ट्रावक्र ऋषि याद् आए जिन पर जनक के दरबार में उनकी विकलांगता पर हंसा गया था और उन्होंने प्राकृतिक विकलांगता पर हंसने वालों को मूर्ख कहा था . अपने एकाक्षी होने पर हंसने या उपहास करने वालों को जायसी ने भी ठीक नहीं माना . उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - मोहि पर हंसहु या हंसहु कुम्हारहु . अर्थात तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझको बनाने वाले कुम्हार पर !
       यही सोचकर मैंने अपनी एक कविता में जो' नया-ज्ञानोदय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी के समय छपी थी नपुंसक लिंगियों के लिए' अंतज' शब्द प्रस्तावित किया था- जिसका तात्पर्य था सबसे अंत में पैदा होने वाला. क्योंकि उनसे वंश - परंपरा आगे नहीं चल पाती इस लिए उन्हें अंतज कहा था. अन्यथा एक मनुष्य के रूप में जीवित उपस्थिति तो वे भी हैं ! हम एक संवेदनशील मानवीय समाज की रचना से कितने दूर हैं अब भी?
रामप्रकाश कुशवाहा
१२.१०.१६

1 comment:

  1. Good Ram Prakash ji ! forwarded to my many freinds the link and content on whatsapp

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