Thursday, 30 March 2017

पं .विद्यानिवास मिश्र

(इधर भारतीय आधुनिकता को लेकर विद्यानिवास जी की चिंताओं और चिंतन को समझने में लगा हूँ | इसी क्रम में विद्याश्री न्यास ,वाराणसी के सहयोग से इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय ,अमरकंटक ,मध्य प्रदेश के द्वारा आयोजित संगोष्ठी में मैंने 'परंपरा और आधुनिकता को लेकर विद्यानिवास जी के चिंतन पर एक व्याख्यान 24 मार्च को दिया | इस अवसर और अमरकंटक के कुछ चुने हुए चित्र मित्रों के लिए | इस व्याख्यान का आरम्भ मैंने कुछ इस तरह के निष्कर्षों के साथ किया |विस्तृत आलेख शीघ्र ही प्रकाशित होगा )

" १८५७ के विद्रोह नें पराजय बोध के साथ अंग्रेजी सभ्यता के श्रेष्ठ होने का जो सामूहिक मनोवैज्ञानिक अचेतन दिया है उसे देखते हुए पं.विद्यानिवास मिश्र जी के सही मूल्यांकन के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों पर पड़े औपनिवेशिक हीनता ग्रंथि के नकारात्मक प्रभाव को भी ध्यान में रखना होगा भारत में आधुनिकता यदि बिना पराधीन हुए आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं की शिक्षा के माध्यम से आयी होती तो वह भारत अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं का भी पुनर्मूल्यांकन करता हुआ आधुनिक हुआ होता | यह एक प्रश्न बनता है की भारतीय आधुनिकता पश्चिम की राजनीतिक पराधीनता के माध्यम से सामने न आकर कुछ उस प्रकार सामने आयी होती जिस प्रकार चीन ,जापान और कोरिया आदि में आयी तो हमारे विकास और विचार की प्राथमिकताएँ भी क्या वैसी ही रहतीं जैसी कि आज है | विद्या निवास मिश्र जी के निबंधों के हवाले से कहें तो तब हम कुछ अलग तरह की आधुनिकता प्राप्त करते | उनके अनुसार अंग्रेजों नें सूफियों और शायरों के एक हजार साल के सारे रचनात्मक प्रभावों को भेदकारी राजनीतिक साजिश के साथ उलट दिया | इस खोज का उनके पास वैचारिक आधार और औचित्य भी है | उनका चिंतन भारत के सन्दर्भ में न सिर्फ आधुनिक है बल्कि परंपरा के पुनर्शोध एवं समाजशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि और अनुशासन से भी विचारणीय है |
अपनें व्याख्यान में मैंने मिश्र जी के दो निबंधों का पाठ-विश्लेषण भी किया -'छितवन की छाँव; और 'मेरी रूमाल खो गयी है ' का | मिश्र जी किस प्रकार अपनें निबंधों में सुचिंतित एवं सुनियोजित रूप से भावात्मक प्रतीक रचते हैं ,इसे मैंने छितवन और रूमाल जैसे प्रतीकों के उदहारण से स्पष्ट किया | रूमाल की तीन सांकेतिक विशेषताएँ बताकर उसे वे भारतीय संस्कृति का प्रतीक बना देते हैं -रूमाल सुगन्धित-सुवासित था ,उसकी सहायता से दुर्गन्ध से बचा जा सकता था .शूल चुभने पर रक्त का बहना रोका जा सकता था |रूमाल में गांठ बंधा होना संस्कृति की स्मृति संरक्षक भूमिका को स्पष्ट करता है और उसका खो जाना पश्चिमीकरण के कारण उसे पूरी तरह अप्रासंगिक मान लिए जाने वाली आधुनिकता का | इसी तरह छितवन की छांह. निबंध में मरघट जाने वाले यात्रियों को छितवन के द्वारा सुख पहुंचना दुःख और मृत्यु जैसे अवसरों पर संस्कृति की सकारात्मक भूमिका का | उसकी छाया से अपयश लगना और पुण्य घटने का व्यंग्यार्थ संस्कृति से आधुनिक एवं बुद्धिजीवी लोगों द्वारा दूरी बनाए रखने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है | अपनी परवर्ती पुस्तक संचारिणी तक आते-आते वे अपमे प्रारंभिक निबंधों के प्रतीकात्मक भावात्मक प्रस्तुति को वैचारिक विमर्श के स्तर पर प्रस्तुत करने लगते हैं

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