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स्कन्द शुक्ल
नौ महीनों बाद एक बच्चा पैदा करने के लिए इतनी बर्बादी किसलिए ? पुरानी धार्मिक मान्यताएँ जो सेक्स को गर्हित बताती हैं और यौन-क्रिया में हिंसा-वृत्ति देखती हैं , वे कहीं-न-कहीं कुछ ढाँपने-छिपाने का प्रयास कर रही हैं। उन्हें डर था और है कि अगर इस मनुष्य-वृत्ति को ढीला छोड़ा गया तो समाज में बिखराव हो जाएगा। यौनक्रिया को विवाह से जोड़कर देखने के पीछे भी यही बात काम करती है। आदमी की औरत से शादी दो व्यक्तियों का मेल बाद में है : पहले यह जैविकी का सामाजिकी से विवाह है। बायलॉजी को उन्मुक्त छोड़ना सोसायटी को वापस रिवाइंड करने का काम करने लगेगी।
मगर फिर विवाह और यौनकर्म का सम्मेल हर जगह एक सा कहाँ है। वह हो भी नहीं सकता। जैविकी तो हर मनुष्य की एक ही है , क्योंकि वह कुदरती है। लेकिन सामाजिकी मनुष्य ने स्वयं बनायी है। और जो आदमी द्वारा निर्मित वस्तु है , उसमें शाश्वत होने का भाव कैसे हो जाए ?
धर्म पर अटूट आस्था के पीछे का मनोविज्ञान उसे कुदरती साबित करना है। आप मान लीजिए कि मेरा वाला मजहब कुदरती है। यह मैंने या किसी आदमी ने नहीं बनाया , यह हमेशा से ऐसे ही था। यह आदिकालिक है। यह प्राकृतिक है। यह मूलतः यों ही था , यों ही है , यों ही रहेगा।
धर्म पर अटूट आस्था के पीछे का मनोविज्ञान उसे कुदरती साबित करना है। आप मान लीजिए कि मेरा वाला मजहब कुदरती है। यह मैंने या किसी आदमी ने नहीं बनाया , यह हमेशा से ऐसे ही था। यह आदिकालिक है। यह प्राकृतिक है। यह मूलतः यों ही था , यों ही है , यों ही रहेगा।
शाश्वत कुछ भी नहीं है। न कोई समाज , न लोकाचार और न कोई मानव-मूल्य ही। भूगोल तक बदल जाता है। ग्रह-तारे बदल जाते हैं। यहाँ तक की शरीर की क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ भी एक सी सदा-सर्वदा नहीं रहती , न रहेंगी।
अमीबा देखा न हो आपने सूक्ष्मदर्शी तले , पर उसका नाम शायद ज़रूर सुना होगा। अमीबा-जैसे एककोशिकीय प्राणी अमूमन अलैंगिक प्रजनन करते हैं। उनमें हमारी तरह नर-मादा नहीं होते। एक कोशिका कुछ समय बाद दो में बँट जाती है और फिर कुछ समय बाद दो से चार हो जाती हैं। मनुष्य भी तो ऐसे बँट सकता था। एक आदमी से वह दो बन जाता और फिर दो से चार। इतने ताम-झाम की भला क्या आवश्यकता थी ?
आम मनुष्य की सोच यह है कि यह बर्बादी केवल पुरुष के शरीर में होती है। वह ही केवल एक अण्डाणु के निषेचन के लिए लाखों शुक्राणु छोड़ता है। ज़रूरत केवल एक की है। बाक़ी सभी नष्ट होंगे। लेकिन स्त्रियाँ बर्बादी नहीं करतीं , यह सोचना भ्रम है। उनके शरीर में हर माह निकलने वाले एक अण्डाणु के बदले आठ-दस अण्डाणु अर्धविकसित ही नष्ट हो जाते हैं।
आम मनुष्य की सोच यह है कि यह बर्बादी केवल पुरुष के शरीर में होती है। वह ही केवल एक अण्डाणु के निषेचन के लिए लाखों शुक्राणु छोड़ता है। ज़रूरत केवल एक की है। बाक़ी सभी नष्ट होंगे। लेकिन स्त्रियाँ बर्बादी नहीं करतीं , यह सोचना भ्रम है। उनके शरीर में हर माह निकलने वाले एक अण्डाणु के बदले आठ-दस अण्डाणु अर्धविकसित ही नष्ट हो जाते हैं।
रमेश जो कि एक स्वस्थ पुरुष है , हर सेकेण्ड 1500 के लगभग शुक्राणु बनाता है। रमेश के कितने बच्चे हैं ? एक। या दो। या तीन-चार-पाँच-दस-पन्द्रह। इमरती देवी जब पैदा हुई थी , तो बीस लाख अल्पविकसित अण्डे लेकर जन्मी थी। वे सभी कहाँ गये ? उनमें से कितने रमेश के साथ मिलकर बच्चों में बदल पाये ?
इस हिंसा में , इस नाश के पीछे भी कोई है जो जी रहा है। इस मारकाट से भी किसी का भला हो पा रहा है। प्रकृति रमेश या इमरती देवी के लिए नहीं सोचती। वह मनुष्य-जाति के लिए सोचती है। या फिर वह उससे भी बड़ी सोच रखती है और समूचे जीवन के लिए सोचती है। या फिर वह कुछ सोचती ही नहीं। यह सोचना मैं सोच रहा हूँ और आपको सोचवा रहा हूँ। खरबों वीरान तारों और खरबों निर्जन आकाशगंगाओं को सोचकर बनाया नहीं गया , नहीं तो किफ़ायत बरती जाती। सुजन-समझदार आदमी सफ़ेद कमीज़ पर काला दाग लगाता है। यहाँ मौत की काली कमीज पर सफ़ेद टीका है ज़िन्दगी का।
सेक्स की तैयारी के लिए की गयी बर्बादी के पीछे मूलवृत्ति मनुष्य-जाति का उत्तरोत्तर विकास है। हर जीव पैदा नहीं हो सकता , हर जीव को कुदरत पैदा नहीं करना चाहती। वह चाहती है कि सबसे श्रेष्ठ ही प्रजनन के फलस्वरूप संसार में आये और फिर वे प्रजनन करके संसार आगे बढ़ाएँ। हर बेटा बाप से बेहतर हो। नम्बरी को दस नम्बरी चाहिए ( विकास के अर्थ में ! ) और दस नम्बरी को सौ नम्बरी।
प्रकृति की यह मूल मंशा है। लेकिन ऐसा हमेशा हो ही जाएगा ज़रूरी नहीं। उसकी गोद में इंसान ही एकमात्र बच्चा नहीं है। साधारण माइक्रोस्कोपों से न दिखने वाले वायरसों से लेकर भीमकाय नीली ह्वेलों तक उसके पास हर साइज़ का शिशु है। ये बच्चे आपस में भिड़ सकते हैं , एक-दूसरे को चोटिल कर सकते हैं , यहाँ तक कि एक-दूसरे को मिटा भी सकते हैं। फिर जिस गोद में जिस हाथ में ये सब हैं , वह ही उसका एकमात्र हाथ नहीं। कुदरत के सहस्रों हाथ हैं। वह न जाने कुछ सोचती है और दूसरे हाथ से इस हाथ की साड़ी बनावट गिरा देती है। एक ही पल में सब समाप्त ! फिर किसी हाथ में नये शिशु गढ़ने लगती है।
लैंगिक प्रजनन इसलिए होता है कि नर और मादा अलग-अलग व्यक्ति हैं , अलग-अलग परिवारों से हैं। उनकी कोशिकाओं में मौजूद डी.एन.ए. में विविधता है। शुक्राणुओं और अण्डाणुओं का निर्माण साधारण कोशिका-विभाजन से नहीं होता , विशिष्ट ढंग से होता है। फिर इस विशिष्ट निर्माण के बाद जब सेक्स होता है तो नर का शुक्राणु मादा से अण्डाणु के डी.एन.ए. से मिल जाता है। दो डी.एन.ए. मिले और जो तीसरा इस दुनिया में आया , वह न अपने बाप-सा है पूरी तरह , न माँ-सा। वह दोनों-सा है , दोनों-सा ही होगा।
जब कोई कहता है कि मेरी बिटिया मुझसी है या मेरा बेटा मुझसा है , तो वह केवल बाह्य-सतही बात का रहा होता है या फिर थोड़े-बहुत गुण-स्वभाव की। उसने यह नहीं देखा-जाना होता कि बिटिया के मस्तिष्क की कोशिकाओं में अमुक काम मम्मी या डैडी , किससे मिलता है या फिर हड्डियों का घनत्व किस्से मेल खाता है।
आदमी-औरत चाम की सतह-भर नहीं हैं। वे बहुत-बहुत और भी कुछ हैं उसके भीतर। आपकी सन्तान पूरी तरह से आप-सी तभी हो सकती है , जब वह अलैंगिक प्रजनन से पैदा हो। दो मिलकर किसी को पैदा करेंगे , तो वह दोनों-सा / दोनों-सी होगा/होगी। यह विभेद , यह बदलाव ज़रूरी है ताकि मानव विकास करता रहे।
आदमी-औरत चाम की सतह-भर नहीं हैं। वे बहुत-बहुत और भी कुछ हैं उसके भीतर। आपकी सन्तान पूरी तरह से आप-सी तभी हो सकती है , जब वह अलैंगिक प्रजनन से पैदा हो। दो मिलकर किसी को पैदा करेंगे , तो वह दोनों-सा / दोनों-सी होगा/होगी। यह विभेद , यह बदलाव ज़रूरी है ताकि मानव विकास करता रहे।
सेक्स की इस जटिल तैयारी में शरीर का खर्चा बहुत हुआ है। लेकिन उस खर्चे से जो औलाद उसके हाथ आने की उम्मीद है , वह पिछली पीढ़ी से बेहतर होगी इसकी उसे आशा है।
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