आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी कृत ‘‘आधुनिक साहित्य’’ और हिन्दी आलांेचना:
अवदान और मूल्यांकन
डाॅ0 दीपा सिंह
आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी हिन्दी आलोचना के उद्भावक आलोचक हैं। ‘‘उद्भावना’’ उनकी आलोचना का प्रिय शब्द है।यह उद्भव और उद्भाव दोनो ही अर्थ-स्तरों पर उनकी आलोचना-दृष्टि को मूल्य प्रदान करता है । अपनी आलोचना-पुस्तक ‘‘आधुनिक-साहित्य’’ को वे सन् 30 से 42 तक के हिन्दी साहित्य की कतिपय मुख्य-कृतियों और प्रवृत्तियों का विवेचन करने वाले समीक्षात्मक निबन्धों का संग्रह कहते हैं। भूमिका में वे लिखते हैं कि‘ हिन्दी में साहित्यिक विवेचन की कमी के कारण इन निबन्धों में नई उद्भावना के लिए पूरा स्थान रहा हैं।.....मेरी ये समीक्षाएं और निबन्ध निर्माण की पगडण्डियाॅं हैं ।(प्ृश्ठ-9)
अपनी इसी पुस्तक की भूमिका में वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रुचि और प्रतिबद्धता जन्य सीमाओं को रेखांकित करते हुए भी उनके ऐतिहासिक योगदान को उद्भावना के स्तर पर ही मूल्यांकित करते हैं। उन्होंने लिखा है कि मानवीय मनोभावों का सुन्दर और स्पष्ट अध्ययन लेकर शुक्ल जी ने उसके स्थान पर भारतीय काव्यशास्त्र की जो मनोरम व्याख्या की है , उसका ऐतिहासिक महत्व है। इस नयी व्याख्या के द्वारा उन्होंने देश की एक प्राचीन किन्तु विस्मृत-प्राय समीक्षा-प्रणाली को नयी दीप्ति और नया जीवन दिया । उनकी ये व्याख्याएं और निर्देश परम्परा का अनुसरण नहीं करते । उनमें नये युग का नया विधान और नयी दृष्टि है ।तभी उनकी यह उद्भावना नये साहित्य को स्वीकार और मान्य हो सकी ।(प्ृश्ठ-18) ‘‘
वाजपेयी जी का युगबोध और उनकी आलोचना-दृष्टि उनकी छोटी-छोटी टिप्पणियों में मुखरित हुई है । पन्त जी के परवर्ती साहित्य पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि‘‘ सन् 32 या उसके आस-पास पन्त जी कवि के बदले कलाकार अधिक हो गए और काव्य-रचना के स्थान पर कुछ ऐसी कृतियाॅं करने लगे,जो ललित की अपेक्षा उपयोगी अधिक थीं ; अथवा जो सीधे ही क्यों न कहे काव्य की अपेक्षा काव्याभास अधिक थी ।’’
( पृष्ठ-29 )
नयी कविता पर विचार करते हुए वे बच्चन की कविताओं को एक नई आलोचनात्मक उद्भावना के साथ मूल्यांकित करते हैं -‘‘अनुभूति के क्षेत्र में बच्चन की सी गहराई छायावादी कवियों में कम मिलेगी ,यद्यपि बच्चन की यह गहराई अत्यधिक वैयक्तिक है ।’’( प्ृश्ठ-60)। प्रयोगवादी कवियों के रचनाकम्र की आलोचना वे ‘‘उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए करते हैं। उसे वे काव्य-दोष के रूप् में देखते हैं । वे इस निष्कर्ष पर पहुॅंचते हैं कि’’उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति’’ से यह जाहिर है कि कवि पर एक अतिरिक्त बुद्धिवादिता का शासन है । यह अनिश्चित मानसिक स्थिति का व्यक्ति है और काव्य की वास्तविक भावभूमि पर पहुॅंचने में अक्षम है।....उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति से तो मूलवर्ती कविकर्म के ही अभाव की सूचना मिलती है ।ऐसी कमी जो कवित्व की सत्ता पर ही आघात करती है ।’’( प्ृा 0 68)उसी क्रम में वे पुनः बच्चन की सराहना करते हैं ।
प्रयोगवाद का मूल्यांकन करते हुए वे उसके नकारात्मक एवं प्रतिगामी ऐतिहासिक प्रभाव को रेखांकित करना नहीं भूलते -‘‘प्रयोगवादी काव्य की इस अन्धाधुन्ध में सबसे बड़ी बुराई यह हुई है कि काव्य और कला सम्बन्धी स्थिर पैमानों पर किसी का विश्वास नहीं रहा । (प्ृ084)
साकेत की समीक्षा में वे साहित्यिक धरातल पर नायकत्व का प्रतिमान टूटते देखते हैं-‘‘महाकाव्य की पद्धति के विरुद्ध साधु भरत को नायक और वियुक्ता उर्मिला को नायिका बनाया है । यह केवल एक साहित्यिक मौलिकता ही नहीं है ।इसमें सम्पूर्ण जीवन-दर्शन की एक क्रान्तिकारी झलक भी दिखाई देती है ं’’(पृ 0 87 ) उर्मिला और भरत का नायकत्व स्वीकार कर साकेत में पहले-पहल महाकाच्य की वीररस-प्रधान प्द्धति की उपेक्षा क्ी गयी है । यह एक ऐसा साहित्यिक प्रवर्तन है , जो आधुनिक युग के अन्य प्रबन्ध-काव्यों में भी प्रतिफलित हुआ है । ’’ ( प्ृष्ठ-88 )‘‘
साकेत में महाकाव्य सम्बन्धी नया आदर्श और प्रतिमान स्थिर करने का प्रयत्न जान-बूझ कर भले ही न किया गया हो ; परन्तु महाकाव्य विषयक क्रमागत व्यवस्था और परिपाटी से यह अनजाने में ही इतनी दूर चला गया है कि आधुनिक युग का नया साहित्यिक प्रवर्तन उसे स्वभावतः अपने विकास की आरम्भिक कड़ी मानकर चलता है ।’’( पृष्ठ-88-89 )
इसके अतिरिक्त वे नवनिर्माण और महाकाव्यत्व के आलोचना-मान द्वारा साकेत का मूल्यांकन करते हैं । यहाॅं भी उनकी दृष्टि में नवीन उद्भावना और युगसम्मत आधुनिकता साकेत के साहित्यिक महत्व के प्रमुख आधार हैं ।
‘ छायावादी काव्य-दृष्टि पर विचार करते हुए वे आचार्य शुक्ल की आलोचना की ऐतिहासिक सीमाओं पर भी विचार करते हैं-‘‘ साहित्य का जगत् से सम्बन्ध जोड़ देने के कारण शुक्ल जी साहित्य के न्ेतिक और व्यावहारिक आदर्शों की ओर इतना अधिक झुक गए कि उसके विशुद्ध मानसिक और भावमूलक स्वरूप का स्वतंत्र आकलन न हो पाया । नवीन आलोचना से ही इस कार्य का आरम्भ होता है ।’’ ( पृष्ठ-290 ) इसी क्रम में वे साहित्य की सार्वकालिकता के प्रश्न को उठाते हुए उनकी चिरस्मरणीयता और स्थायित्व को जातीय भावों और संस्कृति से जांड़ते हैं -‘‘ वास्तव में सभी महान कवि जातीय भावों और संस्कृति के प्रतिनिधि होते हैं , किसी विशेष वाद के नहीं । सामाजिक जीवन में नए परिवर्तन होने पर भी महान कवियों की भाव और कलाविभूति अपना आकर्षण नहीं खोती । वह स्थायी साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाती है ।’’
( प्ृष्ठ-291 )
इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की आलोचना दृष्टि समकालीन
प्रचलित मान्यताओं से अछूता और अप्रभावित निष्कर्ष पाने में विश्वास करती है । वे पूर्वाग्रही आलोचक कभी नहीं रहे । तटस्थ विचारशीलता उनके आलोचक का मुख्य गुण है । इसीलिए वे छायावादी युग में नये का स्वागत कर सके और प्रयोगवादी साहित्य की तात्कालिकता और विचलन का भी सही मूल्यांकन कर सके । तटस्थ और निष्प्क्ष आलोचक दृष्टि ही वाजपेयी जी का मुख्य आलोचनात्मक अवदान है ।
अवदान और मूल्यांकन
डाॅ0 दीपा सिंह
आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी हिन्दी आलोचना के उद्भावक आलोचक हैं। ‘‘उद्भावना’’ उनकी आलोचना का प्रिय शब्द है।यह उद्भव और उद्भाव दोनो ही अर्थ-स्तरों पर उनकी आलोचना-दृष्टि को मूल्य प्रदान करता है । अपनी आलोचना-पुस्तक ‘‘आधुनिक-साहित्य’’ को वे सन् 30 से 42 तक के हिन्दी साहित्य की कतिपय मुख्य-कृतियों और प्रवृत्तियों का विवेचन करने वाले समीक्षात्मक निबन्धों का संग्रह कहते हैं। भूमिका में वे लिखते हैं कि‘ हिन्दी में साहित्यिक विवेचन की कमी के कारण इन निबन्धों में नई उद्भावना के लिए पूरा स्थान रहा हैं।.....मेरी ये समीक्षाएं और निबन्ध निर्माण की पगडण्डियाॅं हैं ।(प्ृश्ठ-9)
अपनी इसी पुस्तक की भूमिका में वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रुचि और प्रतिबद्धता जन्य सीमाओं को रेखांकित करते हुए भी उनके ऐतिहासिक योगदान को उद्भावना के स्तर पर ही मूल्यांकित करते हैं। उन्होंने लिखा है कि मानवीय मनोभावों का सुन्दर और स्पष्ट अध्ययन लेकर शुक्ल जी ने उसके स्थान पर भारतीय काव्यशास्त्र की जो मनोरम व्याख्या की है , उसका ऐतिहासिक महत्व है। इस नयी व्याख्या के द्वारा उन्होंने देश की एक प्राचीन किन्तु विस्मृत-प्राय समीक्षा-प्रणाली को नयी दीप्ति और नया जीवन दिया । उनकी ये व्याख्याएं और निर्देश परम्परा का अनुसरण नहीं करते । उनमें नये युग का नया विधान और नयी दृष्टि है ।तभी उनकी यह उद्भावना नये साहित्य को स्वीकार और मान्य हो सकी ।(प्ृश्ठ-18) ‘‘
वाजपेयी जी का युगबोध और उनकी आलोचना-दृष्टि उनकी छोटी-छोटी टिप्पणियों में मुखरित हुई है । पन्त जी के परवर्ती साहित्य पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि‘‘ सन् 32 या उसके आस-पास पन्त जी कवि के बदले कलाकार अधिक हो गए और काव्य-रचना के स्थान पर कुछ ऐसी कृतियाॅं करने लगे,जो ललित की अपेक्षा उपयोगी अधिक थीं ; अथवा जो सीधे ही क्यों न कहे काव्य की अपेक्षा काव्याभास अधिक थी ।’’
( पृष्ठ-29 )
नयी कविता पर विचार करते हुए वे बच्चन की कविताओं को एक नई आलोचनात्मक उद्भावना के साथ मूल्यांकित करते हैं -‘‘अनुभूति के क्षेत्र में बच्चन की सी गहराई छायावादी कवियों में कम मिलेगी ,यद्यपि बच्चन की यह गहराई अत्यधिक वैयक्तिक है ।’’( प्ृश्ठ-60)। प्रयोगवादी कवियों के रचनाकम्र की आलोचना वे ‘‘उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए करते हैं। उसे वे काव्य-दोष के रूप् में देखते हैं । वे इस निष्कर्ष पर पहुॅंचते हैं कि’’उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति’’ से यह जाहिर है कि कवि पर एक अतिरिक्त बुद्धिवादिता का शासन है । यह अनिश्चित मानसिक स्थिति का व्यक्ति है और काव्य की वास्तविक भावभूमि पर पहुॅंचने में अक्षम है।....उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति से तो मूलवर्ती कविकर्म के ही अभाव की सूचना मिलती है ।ऐसी कमी जो कवित्व की सत्ता पर ही आघात करती है ।’’( प्ृा 0 68)उसी क्रम में वे पुनः बच्चन की सराहना करते हैं ।
प्रयोगवाद का मूल्यांकन करते हुए वे उसके नकारात्मक एवं प्रतिगामी ऐतिहासिक प्रभाव को रेखांकित करना नहीं भूलते -‘‘प्रयोगवादी काव्य की इस अन्धाधुन्ध में सबसे बड़ी बुराई यह हुई है कि काव्य और कला सम्बन्धी स्थिर पैमानों पर किसी का विश्वास नहीं रहा । (प्ृ084)
साकेत की समीक्षा में वे साहित्यिक धरातल पर नायकत्व का प्रतिमान टूटते देखते हैं-‘‘महाकाव्य की पद्धति के विरुद्ध साधु भरत को नायक और वियुक्ता उर्मिला को नायिका बनाया है । यह केवल एक साहित्यिक मौलिकता ही नहीं है ।इसमें सम्पूर्ण जीवन-दर्शन की एक क्रान्तिकारी झलक भी दिखाई देती है ं’’(पृ 0 87 ) उर्मिला और भरत का नायकत्व स्वीकार कर साकेत में पहले-पहल महाकाच्य की वीररस-प्रधान प्द्धति की उपेक्षा क्ी गयी है । यह एक ऐसा साहित्यिक प्रवर्तन है , जो आधुनिक युग के अन्य प्रबन्ध-काव्यों में भी प्रतिफलित हुआ है । ’’ ( प्ृष्ठ-88 )‘‘
साकेत में महाकाव्य सम्बन्धी नया आदर्श और प्रतिमान स्थिर करने का प्रयत्न जान-बूझ कर भले ही न किया गया हो ; परन्तु महाकाव्य विषयक क्रमागत व्यवस्था और परिपाटी से यह अनजाने में ही इतनी दूर चला गया है कि आधुनिक युग का नया साहित्यिक प्रवर्तन उसे स्वभावतः अपने विकास की आरम्भिक कड़ी मानकर चलता है ।’’( पृष्ठ-88-89 )
इसके अतिरिक्त वे नवनिर्माण और महाकाव्यत्व के आलोचना-मान द्वारा साकेत का मूल्यांकन करते हैं । यहाॅं भी उनकी दृष्टि में नवीन उद्भावना और युगसम्मत आधुनिकता साकेत के साहित्यिक महत्व के प्रमुख आधार हैं ।
‘ छायावादी काव्य-दृष्टि पर विचार करते हुए वे आचार्य शुक्ल की आलोचना की ऐतिहासिक सीमाओं पर भी विचार करते हैं-‘‘ साहित्य का जगत् से सम्बन्ध जोड़ देने के कारण शुक्ल जी साहित्य के न्ेतिक और व्यावहारिक आदर्शों की ओर इतना अधिक झुक गए कि उसके विशुद्ध मानसिक और भावमूलक स्वरूप का स्वतंत्र आकलन न हो पाया । नवीन आलोचना से ही इस कार्य का आरम्भ होता है ।’’ ( पृष्ठ-290 ) इसी क्रम में वे साहित्य की सार्वकालिकता के प्रश्न को उठाते हुए उनकी चिरस्मरणीयता और स्थायित्व को जातीय भावों और संस्कृति से जांड़ते हैं -‘‘ वास्तव में सभी महान कवि जातीय भावों और संस्कृति के प्रतिनिधि होते हैं , किसी विशेष वाद के नहीं । सामाजिक जीवन में नए परिवर्तन होने पर भी महान कवियों की भाव और कलाविभूति अपना आकर्षण नहीं खोती । वह स्थायी साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाती है ।’’
( प्ृष्ठ-291 )
इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की आलोचना दृष्टि समकालीन
प्रचलित मान्यताओं से अछूता और अप्रभावित निष्कर्ष पाने में विश्वास करती है । वे पूर्वाग्रही आलोचक कभी नहीं रहे । तटस्थ विचारशीलता उनके आलोचक का मुख्य गुण है । इसीलिए वे छायावादी युग में नये का स्वागत कर सके और प्रयोगवादी साहित्य की तात्कालिकता और विचलन का भी सही मूल्यांकन कर सके । तटस्थ और निष्प्क्ष आलोचक दृष्टि ही वाजपेयी जी का मुख्य आलोचनात्मक अवदान है ।
बहुत अच्छी तर्कसंगत प्रस्तुति।
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