इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग धीरेन्द्र वर्मा जैसे भाषावैज्ञानिकों की चिंतन परंपरा का विकास राम स्वरूप चतुर्वेदी जैसे आलोचकों के माध्यम से आधुनिक काव्य भाषा के विश्लेषण तक जाता है.काव्यानुभूति की जगह संवेदना शब्द का प्रयोग भी उनकी आलोचना में महतव पूर्ण है,जो कि आधुनिक मनोविज्ञान से लिया हुआ शब्द है.चतुर्वेदी जी इलाहाबाद में परिमल के संस्थापक सदस्यों में से रहे हैं.उनकी सामाजिक पहचान अज्ञेय का मित्र आलोचक होने के कारण भी रही है. शीतयुद्धकालीन परिवेश में जब प्रगतिशीलों की रूस-समर्थक लाबी अज्ञेय को भारतीय नहीं बल्कि अमेरिका समर्थक मानती थी-रामस्वरूप चतुर्वेदी का अज्ञेय के प्रति समर्पित आलोचक कर्म ऐतिहासिक महत्त्व का ही कहा जाएगा.
आज के जातीय और परंपरावादी माहौल में समाजशास्त्रीय आधार पर यदि विश्लेषण करें तो भारतीय सन्दर्भ में यह कम प्रगतिशील नहीं कहा जाएगा कि आलोचक और कवि रूप में दो ब्राह्मण कुल में जन्मे रचनाकार आधुनिकता के प्रभाव में व्यक्तित्व की स्वाधीनता का प्रश्न उठा रहे थे. यह देखते हुए कि भारतीय जातीय सामंतवाद में ब्राह्मण वर्ग की परंपरागत भूमिका सामंत और ईश्वर के पक्ष में व्यक्तित्व के विसर्जन और समर्पण की रही है.आज भारतीय संस्कृति के नामपर उसी सामंती सांस्कृतिक तंत्र को भारतीय मूल के लोगों पर थोपने की कोशिश एक पार्टी कर रही है- समय और इतिहास की घडी को पीछे की ओर ले जाने के प्रयास के रूप में. ऐसे में अज्ञेय का यह क्हते हुए कि मैं उस शक्ति से अभिभूत हूँ जो मेरे भीतर व्याप्त है-सामंतवाद की धार्मिक संरचना का भी खुला अस्वीकार ही था. अज्ञेय की इस प्रगतिशीलता को अनदेखा करते हुए उनके समकालीन वामपंथी उनको सीधे मास्को में देखने की अपेक्षा से ग्रस्त थे .इसीलिए पुराने वामपन्थिओ को अज्ञेय की क्रन्तिकारी प्रगतिशीलता समझ में नहीं आयी..कुछ ऐसी ही बातें मैं अनुज महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की साहित्य भंडार,इलाहाबाद से प्रकाशित पुस्तक " रामस्वरूप चतुर्वेदी : स्मृति एवं संस्मृति " के ७ अगस्त को संपन्न लोकार्पण समारोह के द्वितीय सत्र में रखने का प्रयास किया. यद्यपि यह सच है कि स्वयं रामस्वरूप चतुर्वेदी भी प्रतिरोधी राजनीतिक संकीर्ण विचारशीलता के शिकार थे. उनकी आलोचना कांग्रेसी युग की वर्जनशीलता की शिकार है और सामाजिकसंघर्ष और न्याय-अन्याय के मुददों से बच-बचाकर अभिजात्य की भव्य-मुद्रा का कूट छवि-निर्माण की परियोजना के साथ चलती है.इसके बावजूद वह बहुत सीमा तक शिष्ट होने से क्षम्य है.साथ में साथी दिनेश कुशवाह और हेरम्ब चतुर्वेदी के साथ मंच की कुछ तस्वीरें महेंद्रप्रसाद के वाल से...
आज के जातीय और परंपरावादी माहौल में समाजशास्त्रीय आधार पर यदि विश्लेषण करें तो भारतीय सन्दर्भ में यह कम प्रगतिशील नहीं कहा जाएगा कि आलोचक और कवि रूप में दो ब्राह्मण कुल में जन्मे रचनाकार आधुनिकता के प्रभाव में व्यक्तित्व की स्वाधीनता का प्रश्न उठा रहे थे. यह देखते हुए कि भारतीय जातीय सामंतवाद में ब्राह्मण वर्ग की परंपरागत भूमिका सामंत और ईश्वर के पक्ष में व्यक्तित्व के विसर्जन और समर्पण की रही है.आज भारतीय संस्कृति के नामपर उसी सामंती सांस्कृतिक तंत्र को भारतीय मूल के लोगों पर थोपने की कोशिश एक पार्टी कर रही है- समय और इतिहास की घडी को पीछे की ओर ले जाने के प्रयास के रूप में. ऐसे में अज्ञेय का यह क्हते हुए कि मैं उस शक्ति से अभिभूत हूँ जो मेरे भीतर व्याप्त है-सामंतवाद की धार्मिक संरचना का भी खुला अस्वीकार ही था. अज्ञेय की इस प्रगतिशीलता को अनदेखा करते हुए उनके समकालीन वामपंथी उनको सीधे मास्को में देखने की अपेक्षा से ग्रस्त थे .इसीलिए पुराने वामपन्थिओ को अज्ञेय की क्रन्तिकारी प्रगतिशीलता समझ में नहीं आयी..कुछ ऐसी ही बातें मैं अनुज महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की साहित्य भंडार,इलाहाबाद से प्रकाशित पुस्तक " रामस्वरूप चतुर्वेदी : स्मृति एवं संस्मृति " के ७ अगस्त को संपन्न लोकार्पण समारोह के द्वितीय सत्र में रखने का प्रयास किया. यद्यपि यह सच है कि स्वयं रामस्वरूप चतुर्वेदी भी प्रतिरोधी राजनीतिक संकीर्ण विचारशीलता के शिकार थे. उनकी आलोचना कांग्रेसी युग की वर्जनशीलता की शिकार है और सामाजिकसंघर्ष और न्याय-अन्याय के मुददों से बच-बचाकर अभिजात्य की भव्य-मुद्रा का कूट छवि-निर्माण की परियोजना के साथ चलती है.इसके बावजूद वह बहुत सीमा तक शिष्ट होने से क्षम्य है.साथ में साथी दिनेश कुशवाह और हेरम्ब चतुर्वेदी के साथ मंच की कुछ तस्वीरें महेंद्रप्रसाद के वाल से...