Saturday, 13 August 2016

रामस्वरूप चतुर्वेदी पर महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की पुस्तक

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग धीरेन्द्र वर्मा जैसे भाषावैज्ञानिकों की चिंतन परंपरा का विकास राम स्वरूप चतुर्वेदी जैसे आलोचकों के माध्यम से आधुनिक काव्य भाषा के विश्लेषण तक जाता है.काव्यानुभूति की जगह संवेदना शब्द का प्रयोग भी उनकी आलोचना में महतव पूर्ण है,जो कि आधुनिक मनोविज्ञान से लिया हुआ शब्द है.चतुर्वेदी जी इलाहाबाद में परिमल के संस्थापक सदस्यों में से रहे हैं.उनकी सामाजिक पहचान अज्ञेय का मित्र आलोचक होने के कारण भी रही है. शीतयुद्धकालीन परिवेश में जब प्रगतिशीलों की रूस-समर्थक लाबी अज्ञेय को भारतीय नहीं बल्कि अमेरिका समर्थक मानती थी-रामस्वरूप चतुर्वेदी का अज्ञेय के प्रति समर्पित आलोचक कर्म ऐतिहासिक महत्त्व का ही कहा जाएगा.
आज के जातीय और परंपरावादी माहौल में समाजशास्त्रीय आधार पर यदि विश्लेषण करें तो भारतीय सन्दर्भ में यह कम प्रगतिशील नहीं कहा जाएगा कि आलोचक और कवि रूप में दो ब्राह्मण कुल में जन्मे रचनाकार आधुनिकता के प्रभाव में व्यक्तित्व की स्वाधीनता का प्रश्न उठा रहे थे. यह देखते हुए कि भारतीय जातीय सामंतवाद में ब्राह्मण वर्ग की परंपरागत भूमिका सामंत और ईश्वर के पक्ष में व्यक्तित्व के विसर्जन और समर्पण की रही है.आज भारतीय संस्कृति के नामपर उसी सामंती सांस्कृतिक तंत्र को भारतीय मूल के लोगों पर थोपने की कोशिश एक पार्टी कर रही है- समय और इतिहास की घडी को पीछे की ओर ले जाने के प्रयास के रूप में. ऐसे में अज्ञेय का यह क्हते हुए कि मैं उस शक्ति से अभिभूत हूँ जो मेरे भीतर व्याप्त है-सामंतवाद की धार्मिक संरचना का भी खुला अस्वीकार ही था. अज्ञेय की इस प्रगतिशीलता को अनदेखा करते हुए उनके समकालीन वामपंथी उनको सीधे मास्को में देखने की अपेक्षा से ग्रस्त थे .इसीलिए पुराने वामपन्थिओ को अज्ञेय की क्रन्तिकारी प्रगतिशीलता समझ में नहीं आयी..कुछ ऐसी ही बातें मैं अनुज महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की साहित्य भंडार,इलाहाबाद से प्रकाशित पुस्तक " रामस्वरूप चतुर्वेदी : स्मृति एवं संस्मृति " के ७ अगस्त को संपन्न लोकार्पण समारोह के द्वितीय सत्र में रखने का प्रयास किया. यद्यपि यह सच है कि स्वयं रामस्वरूप चतुर्वेदी भी प्रतिरोधी राजनीतिक संकीर्ण विचारशीलता के शिकार थे. उनकी आलोचना कांग्रेसी युग की वर्जनशीलता की शिकार है और सामाजिकसंघर्ष और न्याय-अन्याय के मुददों से बच-बचाकर अभिजात्य की भव्य-मुद्रा का कूट छवि-निर्माण की परियोजना के साथ चलती है.इसके बावजूद वह बहुत सीमा तक शिष्ट होने से क्षम्य है.साथ में साथी दिनेश कुशवाह और हेरम्ब चतुर्वेदी के साथ मंच की कुछ तस्वीरें महेंद्रप्रसाद के वाल से...

Monday, 1 August 2016

बबर बन्दर की विकास-गाथा

मनुष्य नें जिन पशुओं को पालतू बनाया है उनमें से कुछ के भाई-बंधु अब भी जंगली रूप में भी हैं- जैसे जंगली घोड़े जिन पर सवारी नहीं की जा सकती, जंगली भैंसें जिनके सींग अधिक डरावने हैं. अफ्रीका के जंगली हाथी,कुत्ते जिनके नजदीकी रिश्तेदार जंगली कुत्तों और भेड़ियों के रूप में अब भी जंगली रूप में मौजूद हैं. आश्चर्य यह है कि सिर्फ गाय प्रजाति ही जंगली अवस्था में नहीं मिलती. उनके पुरखों को आदमी नें जंगल में छोड़ा ही नहीं. पालतू भैसों की सींग भी जंगली भैसों से बिलकुल अलग तरह की होती है.उनकी प्रकृति गुस्सैल अधिक है. इन शाकाहारी जंगली जानवरों को पालतू बनाने में मनुष्य का बन्दर प्रजाति का होना बहुत काम आया होगा- उसके हाथों, उँगलियों और अंगूठों के विकास ने उसे धरती का बादशाह बना दिया .ग्रीष्म ऋतू में घास की कमी के बाद आदमी की करुणा जागी होगी और उसने मुफ्त में ऊँचे पेड़ो की हरी पत्तियां गिरा कर कई पशुओं को अपना ऋणी बना लिया होगा. पहले अपने लिए बाड़े बनाकर अपनी जान बचायी होगी फिर अपने पालतू पशुओं को भी शरण दिया होगा .कुत्तों के भौकने वाले गुण को पहचान कर उससे अपना भोजन बांटा होगा और उसकी सहायता से सुरक्षित सोना सीख होगा जैसा कि आज भी पशु-पालक करते हैं. जंगली अवस्था नें मनुष्यों के पूर्वजों को बबर शेर जैसी दाढ़ी नें भी उसे भरपूर आत्म-विश्वास दिया होगा. सच पूछा जाय तो मनुष्य एकमात्र बबर बन्दर है.. जंगली अवस्था में उलझे लम्बे बालों के कारण पूर्वज स्त्रियों और पुरुषों दोनों की ही पतली गर्दन अच्छी तरह ढँक- छिप गयी होगी. इससे शेरो न को भी मनुष्य का शिकार करने में मुश्किल हुई होगी. फिर उसने दो पैरों पर चलाना सीखकर अपना सर आसमान में उठा लिया होगा.शेरनियां शिकारकरने का जो ट्रेनिग देती हैं उसमें चोपयों को दौड़कर उनका गला घोंट कर मारना मुख्य है .अबतक बबर बन्दर दो- पाया हो चला था. शिकारी पशुओं की ट्रेनिग चौपायों के शिकार की होती है. अब उसने दो पैरों को हाथों में बदल कर लट्ठ भी उठा लिया था.अब उसका सामना दुनिया का कोई पशु नहीं कर सकता था. अब तक वह पशुओं का सरगना हो चूका था.जब शिकारी पशुओं नें भी उससे हार मान लिया तो उसने स्वयं मनुष्य का ही शिकार करना शुरू कर दिया.उसने शेरो की दहाड़ का सामना करने के लिए ही दुनिया का पहला नगाडा बनाया होगा. जब जोरसे पीटाा होगा तो उसकीआवाज सुन कर शेर ही दहाड़ना भूल गया होगा और डरकर जंगल से भाग गया होगा. सारी दुनिया में मनुष्य जाति ड्रम बजाकर शेरो को डराती रही है. फिर शंख और सींगा बजा कर भेडियों और सियारों को भी डरा दिया होगा. यह कितने गर्व की बात है कि हम यदि सैलून में जाना छोड़ दें तो बबर बन्दर हो जाएंगे. जब आदमी बबर बन्दर रहा होगा तो शेर भी उससे डर जाता होगा कि इसके बाल तो हमसे बड़े हैं.


रामप्रकाश कुशवाहा
०१.०८.२०१६