स्वर्गीय प्रभाकर श्रोत्रिय जी नें एक बार मुझे "साक्षात्कार" में और एक बार "नया ज्ञानोदय" में प्रकाशित किया था .सिर्फ दो बार ही मैंने उन्हें कुछ प्रकाशनार्थ भेजा भी था. मुझे नहीं मालूम उन्होंने मेरा क्या पढ़ रखा था कि जब तक भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रहे मुझे प्रतिवर्ष भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान-समारोह का आमंत्रण-पत्र भिजवाते रहे .यह दूसरी बात है कि तब मैं मुहम्मदाबाद जैसे अराजक क्षेत्र में स्थित राजकीय महाविद्यालय का मुख्य शास्ता भी था. अब तो मुहम्मदाबाद क्षेत्र भी बहुत सुधर गया है.तब मेरे एक दिन के हटने के नाम पर ही प्राचार्य और सहयोगियों का ब्लड प्रेशर बढ़ जाता था. मैं उस आमंत्रण को बहुत महत्त्व देने की स्थिति में भी नहीं था. तब ऐसा भी नहीं सोच पाया कि उनके सम्मान का लाभ उठाकर भारतीय ज्ञानपीठ से कोई पुस्तक ही प्रकाशित करा लूं..
बाद के अनुभव एवं घटनाक्रम से मैंने पाया कि जैसे कभी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज पारिवारिक कांग्रेस में बदल गयी है वैसे ही राष्ट्रवादी व्यापारियों के बड़े सम्मानित संसथान भी नयी पीढ़ी के उत्तराधिकारी व्यापारी घरानों के सम्मान-वृद्धि की दूकानों में बदल चुके हैं .,जिन्होंने न्यास भावना वाला अपना नैतिक स्तर और पेशेवर शुद्धता खो दी है . बहुत सी चीजें तो केजरीवाल के झाडू से भी नीचे चली गयी हैं और सत्व को शायद नए सिरे से गावों-गलियों में बीजने एवं शून्य से बोने-बनाने का वक्त आ गया है . अधिकांश बड़ी संस्थाएं और नामी प्रकाशन-गृह अपने पतनोंमुख दौर में संबंधों के आधार पर लेखकों का चयन करते हुए पाठकों को सिर्फ गुमराह करने और उनके साथ धोखाधड़ी करने के अड्डे मात्र बन कर रह गए हैं .
हिंदी के हवलदारों नें भी व्यापारिक घरानों से गठबंधन कर आलोचना का जो दंड-विधान निर्मित एवं प्रचारित किया उसने हिंदी के नए लेखकों में भविष्योन्मुख सृजनशीलता की आधार कल्पनाशीलता पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया .भविष्य-चिंतन को राजनीतिक दलों से जोड़ दिया गया .पूर्व-निर्धारित आदर्शों के आर्डर पर आधारित रचना को संस्थागत अथवा जातीय समूह की सामाजिक दुर्बलता के मनोविज्ञान द्वारा नियंत्रित किया गया . .इससे फार्मूला लेखन को बढ़ावा मिला और रचनाएँ उबाऊ एवं पूर्वानुमान की शिकार होकर पठनीयता खोती चली गयीं . रचना करना इतना आसान देखकर भारी संख्या में पाठकों नें पढ़ना छोड़कर लिखने के लिए कलम पकड़ लिया .यह नव-रचनात्मक रीतिकाल भी एक कारण है कि हिंदी में जितना लिखा जा रहा है ,उतना पढ़ा नहीं जा रहा है .
श्रोत्रिय जी के ही एक बड़े प्रकाशन संस्थान से हटने के बाद उदात्त के स्थान पर अनुदात्त के प्रचारक एवं चर्चित जनरुचि विद्रूपक (अ) दौर के साहित्यकार जब निदेशक पद पर आरूढ़ हुए तब मेरी दिलचस्पी ही ऐसे संस्थानों से प्रकाशित होने में समाप्त हो गयी थी.यह एक तथ्य है कि हिंदी में यथार्थवाद-प्रकृतवाद के नाम पर भारी मात्रा में अश्लील और मनोविकृत साहित्य खपा दिया गया है .क्योंकि ऐसा प्रगतिशीलता के नाम पर किया गया -इसलिए रूचि-दोष को कभी प्रश्नांकित नहीं किया गया .जबकि लोक में रूचि-दोषी व्यक्ति के लिए 'लंठ' जैसा विरुद पहले से ही उपस्थित है .रूचि-दोषी साहित्य के उचित प्रतिरोधपूर्ण बहिष्कार के लिए 'हिंदी समालोचना में लंठ-साहित्य की अवधारणा' एक सैद्धांतिक जरुरत लगती है .
मुझे नहीं लगता कि बाजार से समझौता कर कोई अच्छा साहित्य रचा जा सकता है या फिर किसी किताबी मधुशाला के पियक्कड़ प्रभारी किसी रचना को अपने दंभ से महान बना सकते हैं .सच तो यह है कि कुरुचि-पोषी औसत एवं सामान्य कृतियाँ प्रकाशन संस्थानों और समाज दोनों का ही स्तर गिराती हैं. किसी भी साहित्य की सार्थक सामाजिक भूमिका लोक की संवेदना और अभिरुचि के परिष्कार में ही हैे,ऐसा मुझे लगता है.पतनकारी लोकप्रियता कभी भी साहित्य की श्रेष्ठता का प्रतिमान नहीं बन सकती.
अपने दूसरे दौर की पहली पुस्तक प्रभाकर श्रोत्रिय् जी की स्मृति को समर्पित करने का मैंने निश्चय किया है .अपनी आत्मीय श्रद्धांजलि के रूप में.उनकी स्मृति को सादर नमन....
बाद के अनुभव एवं घटनाक्रम से मैंने पाया कि जैसे कभी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज पारिवारिक कांग्रेस में बदल गयी है वैसे ही राष्ट्रवादी व्यापारियों के बड़े सम्मानित संसथान भी नयी पीढ़ी के उत्तराधिकारी व्यापारी घरानों के सम्मान-वृद्धि की दूकानों में बदल चुके हैं .,जिन्होंने न्यास भावना वाला अपना नैतिक स्तर और पेशेवर शुद्धता खो दी है . बहुत सी चीजें तो केजरीवाल के झाडू से भी नीचे चली गयी हैं और सत्व को शायद नए सिरे से गावों-गलियों में बीजने एवं शून्य से बोने-बनाने का वक्त आ गया है . अधिकांश बड़ी संस्थाएं और नामी प्रकाशन-गृह अपने पतनोंमुख दौर में संबंधों के आधार पर लेखकों का चयन करते हुए पाठकों को सिर्फ गुमराह करने और उनके साथ धोखाधड़ी करने के अड्डे मात्र बन कर रह गए हैं .
हिंदी के हवलदारों नें भी व्यापारिक घरानों से गठबंधन कर आलोचना का जो दंड-विधान निर्मित एवं प्रचारित किया उसने हिंदी के नए लेखकों में भविष्योन्मुख सृजनशीलता की आधार कल्पनाशीलता पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया .भविष्य-चिंतन को राजनीतिक दलों से जोड़ दिया गया .पूर्व-निर्धारित आदर्शों के आर्डर पर आधारित रचना को संस्थागत अथवा जातीय समूह की सामाजिक दुर्बलता के मनोविज्ञान द्वारा नियंत्रित किया गया . .इससे फार्मूला लेखन को बढ़ावा मिला और रचनाएँ उबाऊ एवं पूर्वानुमान की शिकार होकर पठनीयता खोती चली गयीं . रचना करना इतना आसान देखकर भारी संख्या में पाठकों नें पढ़ना छोड़कर लिखने के लिए कलम पकड़ लिया .यह नव-रचनात्मक रीतिकाल भी एक कारण है कि हिंदी में जितना लिखा जा रहा है ,उतना पढ़ा नहीं जा रहा है .
श्रोत्रिय जी के ही एक बड़े प्रकाशन संस्थान से हटने के बाद उदात्त के स्थान पर अनुदात्त के प्रचारक एवं चर्चित जनरुचि विद्रूपक (अ) दौर के साहित्यकार जब निदेशक पद पर आरूढ़ हुए तब मेरी दिलचस्पी ही ऐसे संस्थानों से प्रकाशित होने में समाप्त हो गयी थी.यह एक तथ्य है कि हिंदी में यथार्थवाद-प्रकृतवाद के नाम पर भारी मात्रा में अश्लील और मनोविकृत साहित्य खपा दिया गया है .क्योंकि ऐसा प्रगतिशीलता के नाम पर किया गया -इसलिए रूचि-दोष को कभी प्रश्नांकित नहीं किया गया .जबकि लोक में रूचि-दोषी व्यक्ति के लिए 'लंठ' जैसा विरुद पहले से ही उपस्थित है .रूचि-दोषी साहित्य के उचित प्रतिरोधपूर्ण बहिष्कार के लिए 'हिंदी समालोचना में लंठ-साहित्य की अवधारणा' एक सैद्धांतिक जरुरत लगती है .
मुझे नहीं लगता कि बाजार से समझौता कर कोई अच्छा साहित्य रचा जा सकता है या फिर किसी किताबी मधुशाला के पियक्कड़ प्रभारी किसी रचना को अपने दंभ से महान बना सकते हैं .सच तो यह है कि कुरुचि-पोषी औसत एवं सामान्य कृतियाँ प्रकाशन संस्थानों और समाज दोनों का ही स्तर गिराती हैं. किसी भी साहित्य की सार्थक सामाजिक भूमिका लोक की संवेदना और अभिरुचि के परिष्कार में ही हैे,ऐसा मुझे लगता है.पतनकारी लोकप्रियता कभी भी साहित्य की श्रेष्ठता का प्रतिमान नहीं बन सकती.
अपने दूसरे दौर की पहली पुस्तक प्रभाकर श्रोत्रिय् जी की स्मृति को समर्पित करने का मैंने निश्चय किया है .अपनी आत्मीय श्रद्धांजलि के रूप में.उनकी स्मृति को सादर नमन....