Saturday, 29 October 2016

पाठकनामा

पाठक को लोकतान्त्रिक नजरिए से आलोचक की एकछत्र सत्ता से मुक्ति तथा सम्मान-भाव दिलाने के लिए ही मैंने १९८९ में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक का नाम 'दूसरा पाठकनामा' रखा था .भारतीय मध्यवर्ग और उसके बुद्धिजीवियों की संख्या आजादी के पहले जितनी कम थी ,निरक्षरों और अपढ़ों की भारी संख्या को देखते हुए गिने-चुने बुद्धिजीवियों का नेता हो जाना स्वाभाविक ही था .जिस तरह पांच-सात वकालत पढ़ने वाले राजनीतिक इतिहास में दर्ज हुए वैसे ही पाठक और लेखक के बीच बौद्धिक अंतर को देखते हुए आलोचक के रूप में साहित्यिक विशेषज्ञ का समादृत होना स्वाभाविक ही था .आलोचना और आलोचक की सत्ता का उत्थान और पतन का सम्बन्ध मध्यवर्ग और उसके बुद्धिजीवियों के विकास से भी है .आज एक साथ अच्छा लिखने पर भी वह प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं जो सीमित जनसंख्या वाले समय में कभी पूर्ववर्तियों को प्राप्त थी .सच तो यह है कि उस समय तक रचनाओं को समझाने-समझाने के लिए आलोचक के मध्यस्थता की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रह गयी थी .आलोचक का काम राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर कृति से अधिक कृतिकार की निष्ठा की परखा कर उसके अनुकूल या प्रतिकूल ,समर्थक या विरोधी होने का साहित्यिक फतवा जारी करना रह गया था .इसके बावजूद आलोचना के डॉ पेशेवर मंचों को बाजार नें संरक्षित और प्रोत्साहित किया था -पहला साहित्यिक पत्रिकाओं में सृजनात्मक आलोचना और समीक्षा का था तो दूसरा शैक्षणिक आलोचना का -जो कक्षाओं में साहित्य को कैसे पढ़ाया जाए इस समस्या के समाधान से सम्बंधित था .
दूसरा पाठकनामा से पूर्ववर्ती पाण्डुलिपि ' पाठकनामा' की थी जिसको सैद्धांतिक अवधारणाओं की पहली पुस्तक होना था ,जो कुछ मेरे आलस्य और कुछ अन्य जरुरी चिंतन की ओर अग्रसर हो जाने के कारण पाण्डुलिपि के रूप में अप्रकाशित ही पड़ी रही .अब वही पुस्तक ''रचना का चौथा आयाम '' नाम से प्रतिश्रुति प्रकाशन कोलकाता से प्रकाशित होने जा रही है . .फिलहाल उस समय दूसरा पाठकनामा की ही अच्छी समीक्षाओं नें जिनमें से जनसत्ता में सुरेश शर्मा द्वारा लिखित समीक्षा का प्रकाशन भी शामिल है .बाबरनामा की तर्ज पर रखे गए इस नाम नें लोगों को इतना प्रभावित किया था कि आज पाठकों के पत्र स्तम्भ के लिए 'पाठकनामा नाम हिंदी साहित्य में सर्वस्वीकृत सा हो गया है . दैनिक जागरण ,शुक्रवार के पाठकनामा स्तंभों के अतिरिक्त मैंने इंटर नेट पर पाठकनामा नाम से ब्लाग भी देखा है .मैं इस शब्द के माध्यम से हिंदी-साहित्य में पाठकीय लोकतंत्र का प्रसार करने वाले सभी सम्बंधितों को इसके लिए साधुवाद- धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ

Friday, 28 October 2016

हृदयेश मयंक

हृदयेश मयंक की पहचान हिंदी जगत में उनके द्वारा सम्पादित पत्रिका 'चिंतन -दिशा 'को लेकर है .लेकिन उनके भीतर एक भले मनुष्य की वह गहरी संवेदनशीलता है जिसके बिना कभी बड़ा साहित्यकार बना ही नहीं जा सकता .आज जिस तरह जिंदगी के साहित्यकार और मनोरंजन के साहित्यकार संचार-माध्यमों में एक ही मूल्यांकन के पलड़े पर विज्ञापित हो रहे हैं उससे सार्थक और प्रचारार्थक साहित्य का भेद मिट सा गया है .हृदयेश मयंक जी नें अपने सद्यः प्रकशित कविता-संग्रह -'हम ये जो मिटटी के बने हैं 'के लिए भूमिका में लिखा है कि 'संग्रह की कविताएँ मेरे सुख-दुःख के समय में तनिक आह्लादित करने वाले संवादों की तरह हैं .ये मुझे मेरे कमजोर क्षणों में उबारती रही हैं .इसलिए मैं कविताओं को बहुत प्यार करता हूँ .''
उनके इस संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए जिंदगी को ही एक घटना की तरह देखती और दिखाती हुई कविता को गंभीर अर्थवत्ता सौंपती चलती हैं .वे अपने जिए हुए को और अपने आस-पास के जीवन-परिवेश को बहुत पास से और भीतर से देखना और दिखाना चाहते हैं .उनकी कविताएँ सामाजिक संवेदनशीलता को जीवन-सरोकार के रूप में प्रस्तुत करती हैं..एक ऐसे समाज की की जीवन-चर्या और उदासीनता का प्रत्याख्यान प्रस्तुत करती हुई जहाँ -''अन्दर नहीं झांकना चाहता था कोई /एक आग सदियों से जल रही है जहाँ /वहां आंच है ,धुंवां है ,बेचैनी है /बाहर निकाल पड़ने की /इसकी खबर क्यों नहीं है लोगों को ?"(पृष्ठ ४३ ,'खबर' कविता )'मैंने बांटना चाह दु:ख /वह चिपक गया छाती से "" या फिर उनकी 'वसीयत ' कविता को ही देखें -''यदि कहीं कोई टुकड़ा है /धरती का मेरे नाम /मैं उसे छोड़ दूंगा /तुम सबके लिए " (पृष्ठ ३१ ) या फिर 'दु :ख ' 'यदि कोई दिल पर हाथ रखा कर बताए /अपने सबसे करीबी का नाम /वह दूख के बारे में ही बतलाएगा '.या फिर 'जीवन को तो बचाना है ' की 'बन्नने होंगे जीवन के लिए नए सौन्दर्य-बोध 'जैसी चिंताए हृदयेश की कविताएँ मनोरंजन की कलात्मक प्रस्तुति नहीं बल्कि जीवन-परिवेश की चिंता और परिवेश की कविताएँ लगती हैं
उनकी कविताएँ कविता के बाजार से अलग हटकर हस्तक्षेप की इच्छुक सबसे संवेदनशील मनुष्य के एकांत-चिंता के रूप में लिखी गयी हैं .इस संकलन में 'गॉड पार्टिकल 'जैसी कविताएँ भी है जो मनुष्य की सभ्यता के विकास के साथ ईश्वर के बदलते चेहरों का भी शिनाख्त करती हैं तो 'एक स्त्री ' जैसी कविता भी है जो घर की देहरी में बंद और छंद को छूने को तैयार स्त्री का तुलनात्मक विमर्श प्रस्तुत करती है .
ऋषभ प्रकाशन, नयी दिल्ली -मुम्बई से प्रकाशित (ई-मेल- rishabh.pub@gmail.com mo. +918655559717 , +91 9757309777 ) से प्रकाशित उनकी कविताओं का संकलन जिंदगी की झांकियों ,पड़ताल और विमर्श की दृष्टि से महत्वपूर्ण है.

Tuesday, 11 October 2016

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र
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हिंदी समाज की सबसे बड़ी समस्या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो वह वनमानुष या औरंगउटान है जो जब तब हमारी बोलचाल की भाषा में हमारी अचेतन आदत का हिस्सा बना बाहर आ ही जाता है . भाषा का सबसे असभ्यतम हिस्सा उन गालियों का है.जो स्त्री जाति की लैंगिक समानता और सम्मान पर आधारित न होकर असमानता और अपमान पर आधारित हैं. उनमें कुछ ऐसा अचेतन छिपा है जैसे स्त्री होना दूसरे दर्जे का नागरिक होना है और अपमान की विषय-वस्तु है.भाषा में शब्दों के बाद भेद-भाव वाली भाषा की अभियांत्रिकी व्याकरण के स्तर पर मिलती है.प्राचीन काल जब भारत में स्त्री-पुरुष असमानता का भेद-भाव बहुत नहीं था तब भाषा भी बहुत विभेदकारी नहीं थी और राम तथा सीता दोनों के साथ 'गच्छति लग सकता था. मध्यकाल में इस्लाम के भेदकारी संस्कार नें राम और सीता को अलग-अलग 'जाता-जाती' कर दिया.
हिंदी में भाषिक असमानता,अपमान और अमानवीयता का सर्जक कबाड़ जातीय पूर्वाग्रहों के प्रचारक शब्दों में भी छिपा है.जिसे मानसिक रूप से कुछ पिछड़े लोग लज्जित होने के स्थान पर समूह-आपराधिक ढंग से अगड़ा होने का साधन समझते हैं.क्योंकि कुछ लोग ऐसी अनैतिक विरासत से असभ्यी सुख-लाभ करना चाहते हैं .इसलिए अवैध हथियारों की तरह उनका इश्तेमाल करना गर्व की वस्तु समझते हैं. राजनीति के अतिरिक्त भाषा ही इस विषमता की सबसे सशक्त प्रचारक है. ये वर्जित, निन्दित और घृणित शब्द यथार्थ में तो नहीं किन्तु आभासी रूप में असमनातावादी श्रेष्ठता का भ्रम सृजित करते रहते हैं.
यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि एशियाई मूल कीहिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के धर्म अन्त:;उपस्थित पुरोहितवादी सामूहिक अचेतन के कारण अपनी जाति और व्यक्ति केन्द्रित महिमामंडन के सांप्रदायिक प्रयास में सम्पूर्ण मानव-जाति की सृजन और अस्तित्वपरक संभावनाओं का मजाक उड़ाते हैं और उनकेप्रति अनास्था व्यक्त करते हैं.बहुत से लोग जो पिछले ज़माने के आध्यात्म के सामंती पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाते वे नहीं समझ पाते कि उनके आध्यात्म का भी कोई आपराधिक चेहरा हो सकता है और वह उनके महान ईश्वर को ही अप्रतिष्ठित करता है .उदहारण के लिए शूद्र भी एक आध्यात्मिक श्रेष्ठता की अवधारणा का ही अवधारणात्मक और वैचारिक प्रति-पक्ष है. ईश्वर के नाम पर विकसित यह जातीय दंभ भी दूसरों में हीनता का प्रचार कर स्वयं को अनैतिक रूप से महिमा-मंडित करता है. हिदुत्व केसाथ-साथ इस्लाम भी ऐसी ही आध्यात्मिकता को लेकर मानवता विरोधी होने का अभिशाप झेल रहा है..हिन्दुओं में जहाँ सत्य (और ईश्वर को भी ) को जाति का बंधुआ बनाया गया है वहीँ इस्लाम सिर्फ एक ही महान व्यक्ति की गवाही पर आधारित है .इस अवधारणा में किसीदूसरे मनुष्य की संभावित महानता का निषेध भी छिपा है. मेरी दृष्टि में यह संरचना श्रद्धेय के परिवार की पुरोहितीय पृष्ठभूमि के कारण ही है.जिसके कारण भावी मानव जाति के भी किसी भी मनुष्य की ईश्वर से साक्षात्कार की सैद्धांतिक गुंजाइश नहीं बचती. मेरा मानना है कि व्यक्तिगत रूप से कोई कितना भी बुद्धिमान हो ले उसे अपनी बुद्धिमानी की सृष्टि के लिए और भविष्य की बुद्धिमानी के लिए भी मानवजाति की सृजनात्मक संभावनाओं पर आस्था रखनी ही चाहिए. किसी एक व्यक्ति की तुलना में सम्पूर्ण मानव-जाति अधिक श्रद्धास्पद और महिमाशाली अस्तित्व है.
हिंदी में मिलने वाले बहुत से अपशब्द तो आध्यात्मिक मूल के धातु एवं अर्थों को छिपाए हुए हैं- जैसे चूतिया शब्द को ही लें तो इसके पीछे संस्कृत का च्युत शब्द है जिसका अर्थ है गिरा हुआ या पतित लेकिन अर्थ-परिवर्तन से यह आध्यात्मिक पतन कराने वाली स्त्री से जोड़ दिया गया है . इसी तरह दो- तीन दिन पूर्व मेरे एक अभिन्न मित्र नें मेरे शब्द - ज्ञान में यह कहकर इजाफा किया कि जिस छक्का को मैं छ: से बना मानता हूँ वह अपने पीछे हिजड़े का अर्थ भी छिपाए हुए है . यह सच है कि इस अर्थ के लिए भी हिंदी समाज ही जिम्मेदार है - लेकिन यदि ऐसा एक असभ्य समाज नें दिया है तो हमें उसके प्रचलन का निषेध करना चाहिए. लेकिन इस ज्ञानार्जन में एक बात मुझे खटकी. वह यह कि जैविक हीनता याजीनेटिक विकृति के शिकार किसी लैंगिक विकलांग को उसकी हीनता के लिए इसप्रकार अपमानित करना चाहिए जिस प्रकार हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हुए हम करते हैं. मित्र में भी मुझे हिजड़ा को हिकारती दृष्टि से देखने वाला परंपरागत असावधान मध्ययुगीन अचेतन व्यक्त होता दिखा . मुझे अष्ट्रावक्र ऋषि याद् आए जिन पर जनक के दरबार में उनकी विकलांगता पर हंसा गया था और उन्होंने प्राकृतिक विकलांगता पर हंसने वालों को मूर्ख कहा था . अपने एकाक्षी होने पर हंसने या उपहास करने वालों को जायसी ने भी ठीक नहीं माना . उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - मोहि पर हंसहु या हंसहु कुम्हारहु . अर्थात तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझको बनाने वाले कुम्हार पर !
       यही सोचकर मैंने अपनी एक कविता में जो' नया-ज्ञानोदय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी के समय छपी थी नपुंसक लिंगियों के लिए' अंतज' शब्द प्रस्तावित किया था- जिसका तात्पर्य था सबसे अंत में पैदा होने वाला. क्योंकि उनसे वंश - परंपरा आगे नहीं चल पाती इस लिए उन्हें अंतज कहा था. अन्यथा एक मनुष्य के रूप में जीवित उपस्थिति तो वे भी हैं ! हम एक संवेदनशील मानवीय समाज की रचना से कितने दूर हैं अब भी?
रामप्रकाश कुशवाहा
१२.१०.१६

Friday, 7 October 2016

राजेंद्र राजन

Thursday, 6 October 2016

राजेंद्र राजन की कविताएँ

आज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,गाजीपुर के हिंदी-परिषद् की ओर से 'कविता : पाठ एवं समीक्षा' कार्यक्रम के अंतर्गत दिल्ली से आए जनसत्ता के वरिष्ठ सम्पादक एवं कवि राजेन्द्र राजन ने लगभग अपनी दस कविताओं का पाठ किया . इस अवसर पर उनहोंने 'पेड़' ,'हत्यारे','इतिहास में जगह',बामियान में बुद्ध','विजेता की प्रतीक्षा में','बुद्धिजीवी','बहस में अपराजेय','विकास' , 'नयायुग', 'ताकत बनाम आजादी' तथा 'पुछल्ला बल्लेबाज' आदिकविताओं काआकर्षक पाठ किया. कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध समालोचक डॉ०पी.एन.सिंह नें राजेंद्र राजन की कविताओं को सुनना एक अविस्मरणीय एवं मर्मस्पर्शी अनुभव बताया. उन्होंने कहा कि राजन की सभी कविताएँ बेहद अच्छी हैं और सही मनुष्यता की पहचान सौंपती हैं. अच्छे और संवेदनशील मनुष्य के मन की कलात्मक प्रस्तुति करती उनकी कविताएँ गंभीर प्रभाव छोड़ती हैं. अपनें समीक्षक वक्तव्य में उपन्यासकार रामावतार नें कहा कि मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी है और मनुष्यता सबसे बड़ा धर्म. राजेंद्र राजन की कविताएँ मनुष्यता का यही सन्देश सौंपती हैं. राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अनिल कुमार तिवारी नें राजेंद्र राजन को मुक्तिबोध के पथ का पथिक कवि कहा .उन्होंने कहा कि राजेंद्र राजन के पास बहुत ही स्वच्छ और परिष्कृति सामाजिक दृष्टि है . इस अवसर पर भूगोल प्राध्यापक संतन कुमार ने अपनी आशु रचित कविता भी सुनाई . हिंदी-परिषद् के संयोजक डॉ.रामप्रकाश कुशवाहा नें उन्हें अज्ञेय द्वारा प्रशंसित समर्थ कवि बताया.


राजेन्द्र राजन (वाराणसी के एवं दिल्ली प्रवासी ) की कविताएँ मुझे क्यों प्रिय हैं जब इसके कारणों पर विचार करता हूँ तो मुझे कई कारण दिखाई पड़ते हैं .सबसे बड़ी बात यह है कि वे अपरिहार्य अभिव्यक्ति के कवि हैं .उनकी कविताएँ एक मितभाषी व्यक्ति की कविताएँ हैं .एक ऐसे कवि-व्यक्ति की कविताएँ हैं जो अनावश्यक कुछ भी बोलना पसंद नहीं करता .या बोलता भी है तो बोलने की सार्थकता के तलाश में धैर्य की अंतिम सीमा तक चुप रहता है .लेकिन यह चुप्पी अज्ञेय का आभिजात्य मौन नहीं है बल्कि देशज-प्रकृत मनुष्य की वह सहज स्वाभाविक संवेदनशील और शिष्ट चुप्पी है जो बहुत-कुछ बुरा लगनें के बावजूद अपने क्षोभ और बोध को किसी निर्वैयक्तिक निष्कर्ष तक पहुँचने और पहुँचाने के लिए बचाए रखना चाहता है .इस तरह उनकी कविताओं पर मेरा दूसरा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि वे वैयक्तिक समस्याओं का भी निर्वैयक्तिक समाधान और परिणति चाहती हैं .राजेंद्र राजन के पास समाज रूपी समुद्र में उठने वाली एक-एक लहरों की तीव्रता और चरित्र दर्ज है .उनकी कविताएँ तथाकथित इतिहास-निर्माता संगठनों के नासमझ भीड़-विवेक और चरित्र को बार-बार प्रश्नांकित करती हैं .उनके स्वार्थों और उनके दावों की पोल खोलती तथा उन्हें बेनकाब करती हैं . 
राजेंद्र राजन की कविताओं में उपस्थिति विशेषता सामान्य मनुष्य की ओर से उसके पक्ष और उसकी मुद्रा में प्रस्तुत जीवन और समाज का असामान्य या विशेष है .उनकी कविताओं में आत्मानुभूति का जो शिल्प मिलता है वह इसलिए इतना अनूठा ,विरल और विश्वसनीय है कि वह उनके जिए और हुए का ही सृजनात्मक रूपांतरण है .उनके कवि व्यक्तित्व का ही काव्यात्मक विस्तार है .वे अपनी कविताओं को सजग रूप से पेशेवर कलात्मक उत्पाद बनाने से बचाते दिखते हैं तो इसका रहस्य बाजार की भीड़ संवेदना की पहचान और उसके दुहराव की निरर्थकता से बचने की उनके रचनाकार की सजगता में है .
कल रविवार २ अक्टूबर को ४ बजे अपरान्ह से तुलसी पुस्तकालय भदैनी में आयोजित अपने प्रिय कवि के एकल काव्यपाठ में आप सभी सुधी मित्र एवं श्रेष्ठ -जन सादर आमंत्रित हैं .