डॉ.दीपा सिंह
आत्म-परिष्कार एवं आत्मनियंत्रण पर बल देने के कारण जैन धर्मं नें साधना के लक्ष्य के रूप में मानवीय पुरुषार्थ को न सिर्फ अंतर्मुखता दी है बल्कि सारी दुनिया को जीतने के स्थान पर स्वयं को जीतने की अनूठी अवधारणा भी विश्व को दी है .जैन-धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता या कट्टरता में नहीं बल्कि अनेकांतवादी दर्शन होने के कारण सामाजिक स्तर पर अत्यंत शिष्ट ,सौम्य ,उदात्त एवं दूसरों पर अपनी इच्छाएँ न थोपने वाला अनूठा धार्मिक संप्रदाय है . यह भारतीय दर्शन की नास्तिक परंपरा की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है .लगभग छठी शताब्दी ईसापूर्व महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित यह विचारधारा मनुष्य को उसकी आतंरिक दुर्बलताओं से ऊपर उठाकर उसकी आत्मा के लिए संपूर्ण स्वामित्व एवं मुक्ति की ज्ञानात्मक व्यवस्था देती है .
वैदिक युग की बलि -प्रथा जैसी हिंसक प्रथाओं वाले भारतीय अतीत को देखते हुए तथा आज के किसी भी मत के अनुयायी भारतीय मूल के किसी भी व्यक्ति में जैन धर्म के उपदेशों -आदर्शों का चेतन-अवचेतन अनुपालन देखा जा सकता है .जैन धर्म केवल सांसारिक हिंसा को ही वर्जनीय नहीं मानता बल्कि मानसिक हिंसा को भी वर्जनीय मानता है .उसके अनुसार मन में किसी के प्रति बुरा विचार रखना भी हिंसा है .इस तरह जैन धर्म मनुष्य को ही भगवान में रूपांतरित करने की विद्या या पद्धति ही है .महावीर स्वामी की सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य ,क्षमा ,धर्म और निर्वाण सम्बन्धी उपदेशों में व्यक्त अवधारणाओं को देखें तो उन्होंने मानवता के पर्यावरण को अच्छा बनाने वाला दर्शन विश्व को दिया है जिसमें त्याग और संयम ,प्रेम और करुणा तथा शील और सदाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है .
अणुव्रत का सम्बन्ध जैन-धर्म के इसी अपूर्व जीवन-दर्शन और संप्रदाय से है .यद्यपि जैन धर्म के लिए अणुव्रत की परिकल्पना नई नहीं है .अणुव्रत शब्द में अणु शब्द का अर्थ लघु ,सुक्ष्म या छोटा ही होता है ,इसी तरह व्रत शब्द से आशय है वैसा संस्कार ,जिसमें संयम या परिहार की संकल्प भावना हो .इस तरह व्रत इन्द्रियों की आसक्ति पर नियंत्रण एवं अनुशासन की साधना है . शब्दार्थ के अनुरूप ही अणुव्रतों की व्यवस्था श्रावकों के लिए की गयी है.श्रावक से तात्पर्य सामान्य भाषा में कहें तो गृहस्थ जैन धर्मावलम्बियों से है .जो जैन साधुओं की तरह अहिंसा आदि व्रतों को संपूर्ण रूप में स्वीकार करनें में असमर्थ किन्तु त्यागपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा रखने वाले ,गृहस्थ जीवन की मर्यादा का पालन त्यागवृत्ति के साथ करने वाले
आत्म-परिष्कार एवं आत्मनियंत्रण पर बल देने के कारण जैन धर्मं नें साधना के लक्ष्य के रूप में मानवीय पुरुषार्थ को न सिर्फ अंतर्मुखता दी है बल्कि सारी दुनिया को जीतने के स्थान पर स्वयं को जीतने की अनूठी अवधारणा भी विश्व को दी है .जैन-धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता या कट्टरता में नहीं बल्कि अनेकांतवादी दर्शन होने के कारण सामाजिक स्तर पर अत्यंत शिष्ट ,सौम्य ,उदात्त एवं दूसरों पर अपनी इच्छाएँ न थोपने वाला अनूठा धार्मिक संप्रदाय है . यह भारतीय दर्शन की नास्तिक परंपरा की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है .लगभग छठी शताब्दी ईसापूर्व महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित यह विचारधारा मनुष्य को उसकी आतंरिक दुर्बलताओं से ऊपर उठाकर उसकी आत्मा के लिए संपूर्ण स्वामित्व एवं मुक्ति की ज्ञानात्मक व्यवस्था देती है .
वैदिक युग की बलि -प्रथा जैसी हिंसक प्रथाओं वाले भारतीय अतीत को देखते हुए तथा आज के किसी भी मत के अनुयायी भारतीय मूल के किसी भी व्यक्ति में जैन धर्म के उपदेशों -आदर्शों का चेतन-अवचेतन अनुपालन देखा जा सकता है .जैन धर्म केवल सांसारिक हिंसा को ही वर्जनीय नहीं मानता बल्कि मानसिक हिंसा को भी वर्जनीय मानता है .उसके अनुसार मन में किसी के प्रति बुरा विचार रखना भी हिंसा है .इस तरह जैन धर्म मनुष्य को ही भगवान में रूपांतरित करने की विद्या या पद्धति ही है .महावीर स्वामी की सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य ,क्षमा ,धर्म और निर्वाण सम्बन्धी उपदेशों में व्यक्त अवधारणाओं को देखें तो उन्होंने मानवता के पर्यावरण को अच्छा बनाने वाला दर्शन विश्व को दिया है जिसमें त्याग और संयम ,प्रेम और करुणा तथा शील और सदाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है .
अणुव्रत का सम्बन्ध जैन-धर्म के इसी अपूर्व जीवन-दर्शन और संप्रदाय से है .यद्यपि जैन धर्म के लिए अणुव्रत की परिकल्पना नई नहीं है .अणुव्रत शब्द में अणु शब्द का अर्थ लघु ,सुक्ष्म या छोटा ही होता है ,इसी तरह व्रत शब्द से आशय है वैसा संस्कार ,जिसमें संयम या परिहार की संकल्प भावना हो .इस तरह व्रत इन्द्रियों की आसक्ति पर नियंत्रण एवं अनुशासन की साधना है . शब्दार्थ के अनुरूप ही अणुव्रतों की व्यवस्था श्रावकों के लिए की गयी है.श्रावक से तात्पर्य सामान्य भाषा में कहें तो गृहस्थ जैन धर्मावलम्बियों से है .जो जैन साधुओं की तरह अहिंसा आदि व्रतों को संपूर्ण रूप में स्वीकार करनें में असमर्थ किन्तु त्यागपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा रखने वाले ,गृहस्थ जीवन की मर्यादा का पालन त्यागवृत्ति के साथ करने वाले