Saturday, 25 June 2016

अणु- व्रत

डॉ.दीपा सिंह 

आत्म-परिष्कार एवं आत्मनियंत्रण पर बल देने के कारण जैन धर्मं नें साधना के लक्ष्य के रूप में मानवीय पुरुषार्थ को न सिर्फ अंतर्मुखता दी है बल्कि सारी दुनिया को जीतने के स्थान पर स्वयं को जीतने की अनूठी अवधारणा भी विश्व को दी है .जैन-धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता या कट्टरता में नहीं बल्कि अनेकांतवादी दर्शन होने के कारण सामाजिक स्तर पर अत्यंत शिष्ट ,सौम्य ,उदात्त एवं दूसरों पर अपनी इच्छाएँ न थोपने वाला अनूठा धार्मिक संप्रदाय है . यह भारतीय दर्शन की नास्तिक परंपरा की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है .लगभग छठी शताब्दी ईसापूर्व महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित यह विचारधारा मनुष्य को उसकी आतंरिक दुर्बलताओं से ऊपर उठाकर उसकी आत्मा के लिए संपूर्ण स्वामित्व एवं मुक्ति की ज्ञानात्मक व्यवस्था देती है .
        वैदिक युग की बलि -प्रथा जैसी हिंसक प्रथाओं वाले भारतीय अतीत को देखते हुए तथा आज के किसी भी मत के अनुयायी भारतीय मूल के किसी भी व्यक्ति में जैन धर्म के उपदेशों -आदर्शों का चेतन-अवचेतन अनुपालन देखा जा सकता है .जैन धर्म केवल सांसारिक हिंसा को ही वर्जनीय नहीं मानता बल्कि मानसिक हिंसा को भी वर्जनीय मानता है .उसके अनुसार मन में किसी के प्रति बुरा विचार रखना भी हिंसा है .इस तरह जैन धर्म मनुष्य को ही भगवान में रूपांतरित करने की विद्या या पद्धति ही है .महावीर स्वामी की सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य ,क्षमा ,धर्म और निर्वाण सम्बन्धी उपदेशों में व्यक्त अवधारणाओं को देखें तो उन्होंने मानवता के पर्यावरण को अच्छा बनाने वाला दर्शन विश्व को दिया है जिसमें त्याग और संयम ,प्रेम और करुणा तथा शील और सदाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है .
      अणुव्रत का सम्बन्ध जैन-धर्म के इसी अपूर्व जीवन-दर्शन और संप्रदाय से है .यद्यपि जैन धर्म के लिए अणुव्रत की परिकल्पना नई नहीं है .अणुव्रत शब्द में अणु शब्द का अर्थ लघु ,सुक्ष्म या छोटा ही होता है ,इसी तरह व्रत शब्द से आशय है वैसा संस्कार ,जिसमें संयम या परिहार की संकल्प भावना हो .इस तरह  व्रत इन्द्रियों की आसक्ति पर नियंत्रण एवं अनुशासन की साधना है .  शब्दार्थ के अनुरूप ही अणुव्रतों की व्यवस्था श्रावकों के लिए की गयी है.श्रावक से तात्पर्य  सामान्य भाषा में कहें तो गृहस्थ जैन धर्मावलम्बियों से है .जो जैन साधुओं की तरह अहिंसा आदि व्रतों को संपूर्ण रूप में स्वीकार करनें में असमर्थ किन्तु त्यागपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा रखने वाले ,गृहस्थ जीवन की मर्यादा का पालन त्यागवृत्ति के साथ करने वाले  

६७वा गणतंत्र दिवस

            डॉ.दीपा सिंह 

अभी -अभी हमारे राष्ट्र नें अपना ६७ वां राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस मनाया है। १९५० में आज ही के दिन १९४७ में अंग्रेजों की अधीनता से मुक्त होने के लगभग तीन वर्ष बाद हमारे देश नें अपना नया संविधान अंगीकार या आत्मार्पित किया था। २६  जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि १९३० में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। २६  नवम्बर १९४९ को भारतीय संविधान सभा द्वारा इस संविधान को अपनाये जाने के बाद २६ जनवरी १९५० को इसे एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के साथ राष्ट्र पर लागू किया गया था। संविधान का पहला ही वाक्य है 'हम भारत के लोग.'
         हम जितने भी पर्व या उत्सव मानते हैं ,उनमें अधिकांश पुराने ज़माने के हैं ,जिन्हे अलग-अलग जाति -धर्म के लोगों ने अपनी जाती या धर्म के लोगों पर लागू किया था। प्रायः देखा जाता है कि लोग जितने मन से अपने धार्मिक पर्व मानते हैं ,उतने मनोयोग से अपने राष्ट्रीय पर्वों को नहीं मनाते। यह अच्छी बात नहीं है। 
          भारतीय संविधान को एक समतामूलक लोककल्याणकारी राष्ट्र की परिकल्पना के साथ निर्मित किया गया है। हमारा संविधान सभी को आश्वस्त करता है कि किसी के भी साथ उसकी जातीय -धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाएगा। इसके लिए नीति-निर्देशक तत्त्वों को भी संविधान में दर्ज कर दिया है। भारत की हर चुनी हुई सरकार का कर्तव्य है कि  वह नीति निर्देशों का पालन करे। 
        हम सभी के जीवन की सार्थकता या उपयोगिता अपने राष्ट्र के निर्माण एवं विकास में अपना योगदान देने में है। इसके लिए हमें अपना अधिक से अधिक बौद्धिक -मानसिक विकास करना होगा। हम वैज्ञानिक ,नेता ,शिक्षक ,व्यवसायी या उद्योगपति बनकर  भी राष्ट्र की सेवा कर सकते हैं। इसके लिए हमें अच्छी शिक्षा ग्रहण करनी होगी और कौशल अर्जित करना होगा। 
          इस अवसर पर हमें अपने पूर्वजों के उस संघर्ष को याद करना होगा ,जिसे उन्होंने देश को आजाद करने के लिए किया। उनके त्याग को और उनके अपमान को भी याद रखना होगा ; जिससे हम आजादी का मूल्य समझ सकें।  हमारे देश में एक बड़ी समस्या आज भी सीमा पर से की जाने वाली साजिशों की है।  कुछ विदेशी शक्तियां नहीं चाहतीं की भारत में शांति बनी रहे। हमें ऐसी साजिशों को विफल करना होगा। अंग्रेज जब भारत से जाने लगे तो उन्होंने इस दर से की इतना बड़ा देश भविष्य में विश्वशक्ति बना सकता है ,उसका विभाजन करा दिया। इससे दक्षिण एशिया का भारतीय भूभाग वैज्ञानिक भविष्य को भूलकर सांप्रदायिक हो गया।  इससे आज स्वयं पश्चिम के देश भी सुखी नहीं है। आतंकवाद जैसी समस्याएं पूरे विश्व को चिंतित किए हुए हैं। 
        अपने राष्ट्र और संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा का एक बार हम पुनः सामूहिक संकल्प लेते हैं।

ज्ञानी बनने का रहस्य

डॉ.दीपा सिंह 


मनुष्य एक दीर्घ जीवी प्राणी है .उससे अधिक लम्बी उम्र प्रकृति नें समुद्री कछुओं को ही दी है .अधिक आयु  वाला जीवन पाने के कारण न सिर्फ  मानव जीवन का बचपन बल्कि वृद्धावस्था भी अन्य जीवों की तुलना में काफी लंबी होती  है . यही कारण है कि बच्चो और वृद्धों की सेवा और देखरेख को प्रायः सभी संस्कृतियाँ बहुत ही महत्त्व देती हैं .इसे धार्मिक कर्त्तव्य माना जाता  है .
           बचपन में प्रकृति नें हम सभी को प्रबल स्नृति का उपहार  दिया  है .इस आयु में सोचने-विचरने की क्षमता उतनी विकसित  नहीं होती  जितनी कि सिर्फ याद रखने की .देखा  जाता  है कि जानवरों के बच्चे भी अपनी प्रजाति के अन्य जानवरों के बीच अपनी माँ  को भीड़ के बीच भी न सिर्फ पहचान लेते हैं बल्कि उनकी सूक्ष्म विशेषताएँ भी याद रखते हैं . यही प्रकृति-प्रदत्त गुण अपने परिवेश की चुनौतियों के प्रति भी उन्हें सजग बनाता है .
            हमारा  शिक्षा ग्रहण करना भी स्मृति-निर्माण की बड़ी परियोजना की तरह है .अपने पिछले ज्ञान और अनुभव से अर्जित समझदारी के आधार पर ही हम नए ज्ञान की समझदारी विक्सित करते हैं .यह एक श्रृंखलाबद्ध  प्रक्रिया है .कुछ-कुछ वैसा ही जैसे हम नीव बनाए बिना ऊपर की दीवार नहीं खड़ी कर सकते 
                इसमें से कुछ को तो हम परिश्रम जिज्ञासा और ध्यान के आधार पर विकसित  करते हैं और कुछ को अपने भीतर साथ-साथ चलने वाली .जैविक प्रक्रियाओं के आधार पर . जीव वैज्ञानिकों नें पाया है कि हमारी स्मृति के निर्माण में मस्तिष्क के निचले भाग में स्थित हायपोथैल्मस  नमक अंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है .हम जब भी कुछ नया याद रखना चाहते हैं या किसी नए अनुभव से गुजरते हैं  तो हायपोथैल्मस को उस स्मृति के संरक्षण के लिए जगह बनाने हेतु भौतिक रूप से भी बड़ा होना पड़ता  है . यह प्रक्रिया कम्प्यूटर में बिलकुल नया मेमोरी कार्ड लगवाने जैसी ही है . इस लिए बच्चों  ! हमें  पहले से जीरो होते हुए भी ज्ञान के क्षेत्र में हीरो  बनने के लिए चुपचाप पढ़ते रहना चाहिए .आगे का काम प्रकृति स्वयं कर देती है .हम जब अपने परिश्रम ,यातना और अभ्यास से अपने मस्तिष्क को नयी स्मृति बनाने का आदेश देंगे तभी वह हमारे लिए कुछ नया कर सकेगी .इस लिए निरंतर परिश्रमपूर्वक अभ्यास ही भविष्य का ज्ञानी बनने बनाने का रहस्य है .यद्यपि बहुत तनाव ठीक नहीं है लेकिन पढ़ाने से मस्तिष्क की तार्किक क्षमता तो बढ़ती ही है  किसी  नयी समस्या को सुलझाने  की हमारी मानसिक शक्ति भी बढ़ती है ..वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसा मस्तिष्क में भूरा द्रव्य और विद्युत् का स्तर बढ़ने  से होता  है .प्रशिक्षित मस्तिष्क अप्रशिक्षित और आलसी मस्तिष्क की तुलना में अधिक योग्य और समर्थ होता  है .इस तरह सिर्फ अच्चा अंक पाने के लिए ही नहीं बल्कि बुद्धिमान मनुष्य होने के लिए भी निरंतर पढ़ना लाभप्रद है .