Sunday, 31 July 2016

शास्त्र-चर्चा: एक नए स्वर्ग के लिए

जो सबसे अच्छे थे अब तक पैदा ही नहीं हुए शायद
कम अच्छे मारे गए गर्भपात में
कमतर अच्छे आकर भी छोड़कर चले गए दुनिया......
फिर हम आए हम !
क्या पता पुण्य क्षीण होने पर
देवताओं नें स्वर्ग से गिराए थे धक्के मारकर
या फिर हम कीट-पतंगों से रेंगते हुए
पिछले दरवाजे से यहाॅं तक पहुॅंचे !
हमारे जन्म पर शास्त्रों ने आशीर्वाद नहीं कहे
अभुक्त थे जो हम-गिरे हुए लौकिक या नारकीय !
स्वर्ग मृत्यु के पार था इसलिए देवता भी नहीं थे हम
और मारे जाने के लिए अभिशप्त
अपने होने से ही प्रमाणित कि मुक्त नहीं हम ।
तो अच्छे लोगों के विरुद्ध निरन्तर घृणास्पद होती जाती नियति में
शास्त्रसम्मत यही है कि हममें से कोई मुक्त नहीं हैं
अपने पवित्र संकल्पाों और प्रार्थनाओं के बावजूद
हम सभी पापी हैं और कुकर्मी.......
न होते तो हमारा जन्म ही क्यों होता- कहते हैं शास्त्र !
हम सब विद्रोह के लिए अभिशप्त तिरष्कृत-त्रिशंकु की सन्ताने हैं
और हमारी मुक्ति सिर्फ विश्वामित्र बनने में है........
हमारे लिए प्रतिबन्धित स्वर्ग की अश्लील नागरिकता के समानान्तर
एक बार फिर रचने में है एक नया स्वर्ग !

रामप्रकाश कुशवाहा
( तरसेम गुजराल द्वारा उनकी पत्रिका "वक्त बदलेगा " में पूर्व-प्रकाशित)

माॅं नहीं जानती

माँ कहती हैं-जब तू छोटा था....कितना मोटा था !
जब तक पलटती नहीं थी तुझे अपने हाथों
बिना करवटें बदले लेटा रह जाता था तू !
मोटे तकिया की तरह.....
अब तो समय के पंख लगाकर उड़ गया हूॅं मै
उसकी पहुॅंच से बहुत दूर.....
माॅं की यादों मे एक छोटा-सा नक्शा छोड़कर बचपन का
उसे पता नहीं है कि इस बीच मैने कितने किए अपराध
कितनी दफाएं लगा दी हैं जिन्दगी ने मेरे जीने के विरुद्ध
या कि कितने व्यापक संहारों का एकमात्र जीवित साक्षी हूॅं मै
उसकी समझ से परे है मेरी भाग-दौड़
मेरी अकुलाहटें और मेरा रोना-जो मेरे बचपन की तरह
मेरे सपाट चेहरे के भीतर कहीं खो गया है.....
माॅं को मालूम नहीं हैं आइन्स्टीन के सिद्धान्त
ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने और उसके सिर्फ
रूप बदल लेने के वैज्ञानिक सिद्धान्त...
उसके लिए चिन्ता का विषय है मेरा दिनोदिन दुबला होते जाना
उसके लिए समझ से परे है मेरी चिन्ताएं
मैं वर्षों से प्रयास कर रहा हूॅं कि चिड़िया की तरह भूल जाए माॅं
उसे छोड़कर उड़ आए इस बच्चे को......
किसी फौजी की बहादुर माॅं की तरह रख ले अपने दिल पर पत्थर
कि मुझे भी तो जूझने हैं कितने मोर्चे
लड़नी हैं कितनी लड़ाइयाॅं.....जीतने हैं युद्ध
इस छोटी-सी जिन्दगी में !
माॅं नहीं जानती-ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने
और सिर्फ रूप बदल लेने का नियम
नहीं तो समझा लेता उसे
कि दुबलेपन के बावजूद नष्ट या व्यर्थ नहीं हुआ होगा
मेरा निरन्तर घटता द्रव्यमान !
या अब तक वही अपना रूप बदलकर बन गई होती धरती
और मैं दूर-दूर तक विचरण करता
अपनी प्यारी माॅं की ही गोद में.......

रामप्रकाश  कुशवाहा 

हम चाहते हैं...

तुम्हारे जिए और दिए हुए सच
हमारे प्रश्नों से घायल हो चुके हैं
हम तुम्हारी गलतियों-मूर्खताओं को वैसे ही जानते हैं
जैसे आने वाली पीढ़ियाॅं जानेंगी हमारी मूर्खताओं को......
हम तुम्हारी दी हुई निष्ठाओं से छले गए हैं
हम घर से बेघर समय से असमय हुए हैं
तुम्हारी दी हुई दाढ़ियाॅं नोच डालने की हद तक
खुजली पैदा करती हैं हमें लहूलुहान करती हुई.....
हम नहीं चाहते कि हमारा नाम
तुम्हारी बनाई हुई जातियों के ईमानदार कुली के रूप में लिखा जाए...
हम अपने वंशजों को अपना भारवाहक बनाने वाली
तुम्हारी हिंसक परम्परा के खिलाफ हैं
हमें नहीं चाहिए आदमी की खाल उधेड़कर
उसके लहू में डुबोकर लिखे गए तुम्हारे सनातन दिव्य ग्रन्थ.....
हम तुम्हारी सभी को मारकर जीने वाली अमरता के खिलाफ हैं
तुम्हारा हमारे समय पर लदकर बलात् जीवित रहना
एक अप्राकृतिक अपराध है
हम न्याय चाहते हैं.....हम तुम्हारी मृत्यु चाहते हैं पितामह!
हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों को भी
नयी सभ्यता के लिए अपना नया पितामह चुनने का अधिकार मिले
बताओ ! तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी ?

रामप्रकाश कुशवाहा

Friday, 22 July 2016

यह जंगल ...

वे......जो पूरी तरह स्वतन्त्र  हो गए  हैं
अपने कर्मों का बबूल-बीज छींटते हुए .....

अभी ऋतू नहीं आयी बरसात  की
कब तक उगनी है काँटों की फसल
आज,कल या फिर वर्षों बाद
कब तक चुभनी है काँटों की फसल !

यह खुनी जंगल उन लोगों नें पैदा किया था
जो पूरी तरह निश्चिन्त थे
कि अब उन्हें
इन रौंदी हुई पगाडंडियों से
कभी भी वापस नहीं लौटना है ....

वे जो पूरी तरह निश्चिन्त थे
हाँ वे ही ...वे ही .....वे ही
अपनी अगली पीढ़ियों का
बहता हुआ लहू मांगने के लिए
काँटों का हरा-भरा जंगल छोड़ गए हैं
हाँ वे ...जो पूरी तरह निश्चिन्त  थे. 

Tuesday, 5 July 2016

इस्लामी आतंकवाद का सामजिक कारण

अधिकांश लोग यह समझते हैं कि इस्लामी आतंकवाद की समस्या का केवल मजहबी चेहरा ही है जबकि मैं उसे धार्मिक नहीं बल्कि संस्कृतिक और सामाजिक भी मानता हूँ.परंपरा के प्रति अपनी ईमानदार सामूहिक वफ़ादारी के कारण आधुनिकता से समायोजन में असमर्थ विश्व का बड़ा जन-समुदाय अपने व्यवहार से मध्ययुगीन मानवीय पर्यावरण की पुनर्सृष्टि करने लगता है.वह सिर्फ विचारधारा के कारण ही आतंकवादी नहीं बनता बल्कि इसलिए भी कि मुसलमान युवक अन्य मतावलंबी युवकों की तुलना में यौन-यातना (इन युवको को उनमें प्रचलित खतना प्रथा के कारण भी कुछ असामान्य उत्तेजनाओं से गुजरना पड़ता है.न्यूरो विटामिनों का उचित पोषण नहीं मिला तो उनमें से अधिकांश चिडचिडे और मनोरोगी हो जाते हैं' यौन-यातना से मेरा आशय यह भी है.जिसे मैं खुलकर लिखना नहीं चाहता था. सरकार को चाहिए कि मुसलमानों में विटामिन बी की आपूर्ति मुफ्त करे) एवं प्रेम यातना के अधिक शिकार होते हैं.एक ही माता की सहोदर संतानों में विवाह वर्जित होने के बावजूद अपने ही कुटुंब में हीे विवाह होना संभव होने के कारण मुस्लिम युवक बचपनके बाद कम उम्र से ही अपने ही परिवार में अपनी जीवन - संगिनी ढूँढ़ने का प्रयास करने लगते हैं.दूसरी ओर परदा प्रथा के कारण चाचियाँ और मौसियाँ भी कमर कस कर लड़कियों की निगरानी में लग जाती हैं कि नालायक किसी तरह सफल नहीं हो पाए. इस द्वंद्व-युद्ध में हारेे हुए एवं प्रेम में घायल लडके आत्महत्या करने के लिए आतंकवादी बनने निकल जाते हैं. एक अन्य कारण यह है कि अंग्रेजी शिक्षा के ज़माने में मदरसों में धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने वाले लडके एक दिन पाते हैं कि विवाह की मंडी में उनकी तो कोई पूछ ही नहीं है.उनके पास निराश होकर आतंकावाद्दी बनकर बन्दूक के बल पर लड़कियों का अपहरण करने का ही एक मात्र रास्ता बचता है.इस्लाम में जिहाद की संस्कृतिक अवधारणा उसके व्यर्थता-बोध को सिर्फ प्लेट फार्म ही उपलब्ध करता है . यह जातीय या कौमी धरातल पर शहादत को महिमा-मंडित करने जैसा है. आधुनिकता के परिवर्तनों से गुजर रहा मुस्लिम समाज अपनी वैयक्तिक और सामुदायिक कुंठा को ऐसी ही हत्याओं द्वारा दूरकरना चाहता है. ऐसा अरब आदि में देखने को मिलता है और पाकिस्तान तथा भारत में भी. अन्य समुदायों में दूर शादी होने की प्रथा के कारण या फिर खुलेपन वाले पश्चिमी समुदायों में ऐसी कुंठा नहीं होने से युवक आतंकवादी कम बनते हैं.उनकी इस कुंठा का खामियाजा अन्य समुदाय की युवतियों को उठाना पड़ता है. कठोर वर्जनाओं में पालने के कारण खुलेपन में जीती हुई दुनिया की अधिकांश स्त्रियों को खलनायिका के रूप में देखते हैं अभी-अभी बंगलादेश में आतंकी हमले में मारी गयी तारिषीी की हत्या के पीछे भी ऐसा घृणा-भाव हो सकता है. शिक्षाके कम स्तर के कारण भीं धनोपार्जन के बाद ऐसे युवक चौराहों पर युवतियों को घूरनें और छींटाकसी करते देखे जा सकते हैं.