माँ कहती हैं-जब तू छोटा था....कितना मोटा था !
जब तक पलटती नहीं थी तुझे अपने हाथों
बिना करवटें बदले लेटा रह जाता था तू !
मोटे तकिया की तरह.....
बिना करवटें बदले लेटा रह जाता था तू !
मोटे तकिया की तरह.....
अब तो समय के पंख लगाकर उड़ गया हूॅं मै
उसकी पहुॅंच से बहुत दूर.....
माॅं की यादों मे एक छोटा-सा नक्शा छोड़कर बचपन का
उसकी पहुॅंच से बहुत दूर.....
माॅं की यादों मे एक छोटा-सा नक्शा छोड़कर बचपन का
उसे पता नहीं है कि इस बीच मैने कितने किए अपराध
कितनी दफाएं लगा दी हैं जिन्दगी ने मेरे जीने के विरुद्ध
या कि कितने व्यापक संहारों का एकमात्र जीवित साक्षी हूॅं मै
उसकी समझ से परे है मेरी भाग-दौड़
मेरी अकुलाहटें और मेरा रोना-जो मेरे बचपन की तरह
मेरे सपाट चेहरे के भीतर कहीं खो गया है.....
कितनी दफाएं लगा दी हैं जिन्दगी ने मेरे जीने के विरुद्ध
या कि कितने व्यापक संहारों का एकमात्र जीवित साक्षी हूॅं मै
उसकी समझ से परे है मेरी भाग-दौड़
मेरी अकुलाहटें और मेरा रोना-जो मेरे बचपन की तरह
मेरे सपाट चेहरे के भीतर कहीं खो गया है.....
माॅं को मालूम नहीं हैं आइन्स्टीन के सिद्धान्त
ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने और उसके सिर्फ
रूप बदल लेने के वैज्ञानिक सिद्धान्त...
उसके लिए चिन्ता का विषय है मेरा दिनोदिन दुबला होते जाना
उसके लिए समझ से परे है मेरी चिन्ताएं
मैं वर्षों से प्रयास कर रहा हूॅं कि चिड़िया की तरह भूल जाए माॅं
उसे छोड़कर उड़ आए इस बच्चे को......
किसी फौजी की बहादुर माॅं की तरह रख ले अपने दिल पर पत्थर
कि मुझे भी तो जूझने हैं कितने मोर्चे
लड़नी हैं कितनी लड़ाइयाॅं.....जीतने हैं युद्ध
इस छोटी-सी जिन्दगी में !
ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने और उसके सिर्फ
रूप बदल लेने के वैज्ञानिक सिद्धान्त...
उसके लिए चिन्ता का विषय है मेरा दिनोदिन दुबला होते जाना
उसके लिए समझ से परे है मेरी चिन्ताएं
मैं वर्षों से प्रयास कर रहा हूॅं कि चिड़िया की तरह भूल जाए माॅं
उसे छोड़कर उड़ आए इस बच्चे को......
किसी फौजी की बहादुर माॅं की तरह रख ले अपने दिल पर पत्थर
कि मुझे भी तो जूझने हैं कितने मोर्चे
लड़नी हैं कितनी लड़ाइयाॅं.....जीतने हैं युद्ध
इस छोटी-सी जिन्दगी में !
माॅं नहीं जानती-ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने
और सिर्फ रूप बदल लेने का नियम
नहीं तो समझा लेता उसे
कि दुबलेपन के बावजूद नष्ट या व्यर्थ नहीं हुआ होगा
मेरा निरन्तर घटता द्रव्यमान !
या अब तक वही अपना रूप बदलकर बन गई होती धरती
और मैं दूर-दूर तक विचरण करता
अपनी प्यारी माॅं की ही गोद में.......
और सिर्फ रूप बदल लेने का नियम
नहीं तो समझा लेता उसे
कि दुबलेपन के बावजूद नष्ट या व्यर्थ नहीं हुआ होगा
मेरा निरन्तर घटता द्रव्यमान !
या अब तक वही अपना रूप बदलकर बन गई होती धरती
और मैं दूर-दूर तक विचरण करता
अपनी प्यारी माॅं की ही गोद में.......
रामप्रकाश कुशवाहा
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