Friday, 30 June 2017

मनुष्य और साँप

कक्षा में गोरखनाथ और कुण्डलिनी जागरण से सम्बंधित की गयी अपनी एक टिप्पणी याद आ रही है ,जिसमें मैंने कहा था कि लाखों वर्षों के विकासक्रम में भटकने और बिछुड़ने के बावजूद मस्तिष्क से लेकर पूंछ तक कुत्ता, बिल्ली ,भैस ,शेर,बन्दर और आदमी भी सभी सांप के ही विकासात्मक रूपांतर और विविध रूप लगते हैं | देखा जाय तो सांप का विष भी उसकी लार ही है और इन्सान का विष उसके क्रोध के रूप में उसके दिमाग में चला गया है | वैसे तो वह निर्विष सांप की तरह है ,क्योंकि उसके काटने से कोई नहीं मरता लेकिन उसने मारने के नए तरीके विकसित कर लिए हैं | सांप सरीसृप है ,उसमें अविकसित हाथ और पैर के अवशेष तो मिलते हैं लेकिन पूँछ वाले अन्य जानवरों और आदमी के तंत्रिका तंत्र में हाथ और पैर के लिए दो शाखाओं के रूप में अलग या अतिरिक्त रूप से तंत्रिका तंत्र का विस्तार हुआ है | बाकी सभी कुछ सर्पवत ही है | दो आँखे ,दो नाक ,जीभ फेफड़े ,स्त्री-पुरुष सभी मनुष्य की तरह ही है |
जब कभी मैं किसी को मोटर सायकिल चलाते हुए देखता हूँ और इस नजरिए से सोचता हूँ कि प्रकृति का कैसा चमत्कार है कि सांप की प्रजाति की ही एक शाखा जैविक रूप से विकसित और परिष्कृत होकर आज मोटर सायकिल और वायुयान चला रही है,एक-दूसरे से लड़ते हुए एक-दूसरे की हत्याएं कर रही है तो प्रकृति के विकास क्रम पर रोमांचित और अभिभूत हो जाता हूँ ....

Monday, 19 June 2017

डॉ .पी.एन.सिंह : स्मृतियों की दुनिया

मैं डॉ ० पी.एन. सिंह के लेखन का कई कारणों से प्रशंसक रहा हों .वे आरम्भ से ही सामाजिक सरोकारों की कसौटी पर साहित्य को परखने के पक्षधर रहे हैं .उनकी समीक्षाएं भी जीवन पर किए गए जरुरी विमर्श के रूप में लिखी गयी हैं.  कभी समकालीन सोच के सम्पादकीय के रूप में लिखे गए और इस पुस्तक में विशिष्ट और सामान्य दोनों ही प्रकार के मध्यवर्गीय नायकों की सार्थक स्मृतियाँ हैं जो लेखक की दृष्टि में शिष्ट नागरिक बोध के निर्माण की दृष्टि से उपयोगी हैं .ये स्मृतियाँ राजनीतिक नेताओं और साहित्यिक विचारकों तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि पी.एन.सिंह के पारिवारिक और सामाजिक वृत्त में उपस्थित उन स्मृति-शेष व्यक्तियों पर भी केंद्रित है जिनका होना उनके अपने होने का पर्याय रहा है .
       मार्क्सवादी संस्कारों के कारण पी.एन.सिंह किसी भी व्यक्ति की सामाजिक सार्थकता.महत्व और नायकत्व की खोज उसे उसके युग और परिवेश में रखकर ही करते हैं .इसके कारण इसके फलस्वरूप व्यक्ति के पीछे खड़े समाज और समाज को निर्मित करने वाले व्यक्ति दोनों को ही साफ-साफ देखा और दिखा पाते हैं .यह एक ऐसी विशेषता है जो साहित्य को सांप्रदायिक और एकांगी ढंग से जीने वाले साहित्यिकारों में नहीं मिलती .   संकलित निबंधों में उनका लेखन हिंदी के उच्च स्तरीय विज्ञापित साहित्यकारों और विचारकों के लेखन का रूप,स्वरूप , विषय  तथा विधात्मक ढांचों की बिलकुल ही परवाह नहीं करता .उनके द्वारा लिखे गए व्यक्तिचित्र भी चर्चित-अचर्चित ,प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित की परवाह किए बिना लिखे गए हैं .आश्चर्य  की बात यह है कि अपने जीवन में आए बिलकुल सामान्य लोगों पर लिखी गयी उनकी पुस्तक 'समय की प्रतिध्वनियाँ '(२०११) मुझे उनकी वैश्विक सन्दर्भों पर लिखी गयी पुस्तकों से कम रचनात्मक और साहित्यिक महत्त्व की नहीं लगतीं .इसका कारण यही लगता है कि वे आंचलिक पर भी ज्ञान के वैश्विक प्रतिमानों की कसौटी पर विचार करने वाले विरल लेखक हैं .उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति छोटा या अमहत्वपूर्ण नहीं है .वे पूरी ताकत , ईमानदारी और गंभीरता के साथ  के साथ साधारण को भी यदि विचार का विषय बनते हैं तो उसे असाधारण बना देते हैं .  
                 उनके लेखन को पढ़ने के बाद मैंने यह महसूस किया कि हिंदी के लेखन-चिंतन में एक विषय-सांप्रदायिक किस्म की संकीर्णता व्याप्त है .उनके सरोकार सीमित हैं .एक बंद-सामुदायिक किस्म का पिछड़ापन है .उनमें सामजिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखकर सोचने की आदत नहीं हैं .वे जिंदगी कम ,साहित्य अधिक बतियाते हैं .हिंदी के अधिकांश लेखकों के लिए उनका पूर्वाग्रह अधिक महत्वपूर्ण है .वे उस समूह के प्रति निष्ठावान बने रहना चाहते हैं ,जिसके सहयोग से वे सुरक्षित,संरक्षित और विज्ञापित हो सकें .यह असामाजिकता ही उनके लेखन को संदिग्ध ,अरुचिकर,सीमित और अविश्वसनीय बनती है .उनका प्रारंभिक लेखन भले ही मार्क्सवादी शुद्धतावाद का सजग पक्षधर रहा हो ,परवर्ती लेखन में मार्क्सवादी समझा और संस्कार का निवेश गाँधी ,अम्बेडकर और लोहिया जैसे भारतीय परंपरा के लोकतान्त्रिक नायकों के लिए भी किया है .उन्होंने दलित आन्दोलन को अपना लोकतान्त्रिक समर्थन ''अम्बेडकर चिंतन एवं हिंदी दलित साहित्य 'लिखकर किया .इस बात की परवाह किए बिना कि दलित सांप्रदायिक विवेक उनके लेखन और निष्कर्षों को सहज भाव से स्वीकार करेगा या नहीं .मार्क्सवादी अनुशासन में रहकर आधुनिक समयोचित विमर्श विकसित करने के अपने युगाबोधीय प्रयत्नों के चलते स्थगित मार्क्सवादी 'कामरेडों ' द्वारा संशोधनवादी समझे जाने के खतरों को भी युगीन दायित्वों का हिस्सा मानते रहे हैं .
                  मूलतः समकालीन सोच के सम्पादकीय रूप में लिखे गए ये संस्मरणात्मक विमर्श  भारतीय लोकतंत्र और उसकी प्रगतिशील नागरिक चेतना के विकास के लिए मध्यवर्गीय प्रतिमान नायकों पर परिचयात्मक और विमर्शात्मक दृष्टिपात हैं .विषय-चयन  का आधार सार्थक सामाजिक -राजनीतिक -साहित्यिक विवेक होने से ये संस्मरणात्मक और जीवनीपरक रेखाचित्र अपनी प्रस्तुति में विधात्मक स्वरूप की परवाह बिलकुल ही नहीं करते .   वैसे भी समकालीन चुनौतियों से जूझने वाले किसी अग्रगामी चिन्तक को, अपनी किसी भी अभिव्यक्ति की पारंपरिक  विधा क्यों तय करनी चाहिए  ? क्या इसलिए कि  वह किसी विशिष्ट भाषा-भाषी समाज और उसके साहित्य की एक विज्ञापित आदत है . यह आदत आलोचना की भी हो सकती है और शैक्षणिक संस्थानों  से जुड़े पेशेवर बुद्धिजीवियों की भी ; जिनके लिए विधा-निर्धारण बौद्धिक वर्गीकरण का एक हिस्सा होता है .
                बहुत से लोग जिनमें साहित्यकार और समीक्षक दोनों शामिल हैं -यह भूल जाते हैं कि संवाद की इच्छा ही किसी भी साहित्य-साधना की मूल अभिप्रेरणा है .दूसरों के अनुभव-संसार को जानने -सुनने की इच्छा का सम्बन्ध पाठक से हो सकता है .क्योंकि वह पढ़ता ही इस लिए है कि वह दूसरों के जीवन-सच से परिचित हो सके .इस बिंदु पर लेखक एक अग्रगामी  जिज्ञासु है .वह सोच चुका होता है ,जान चुका होता है -तभी तो वह बताना चाहता है .कुछ -कुछ किसी यात्रा से वापस लौटे किसी यात्री की तरह ,जिनके पास भावी यात्रियों के लिए पर्याप्त सूचनाएं होती हैं .जैसे पानी उपरी तल से  निचले तल कीओर बहता है -मानव जाति की सूचनाओं और स्मृति का प्रवाह भी अनुभूत से अनुभाव्य की ओर जाता  है .ऐसे में छंद और विधा रूप बहुत मायने नहीं रखते .-वे अभिव्यक्ति की आत्मा नहीं ,सुविधाजनक आदते हैं .जैसे अच्छी सड़कें निकटतम दूरी से अच्छी या सुखद यात्रा की सुविधा प्रदान करती हैं -वैसे ही विधाएँ भी हमारी अभिव्यक्ति की संरचनात्मक सुविधाएँ हैं .
                         डॉ ० पी ० एन ० सिंह की  पुस्तक ''मेरी दुनिया के लोग '' की भूमिका लिखते समय मुझे सबसे अधिक दुरुहता की प्रतीति उनकी इन गद्यात्मक अभिव्यक्तियों के विधा-निर्धारण में ही हो रही है .इसका कारण यह है कि  वे सदैव ही सम्माज की भावी जरूरतों को धयान में रखकर  लिखते -सोचते रहे हैं .अध्ययन -अध्यापन से लेकर चिंतन तक  उनके पास समाज को  बताने के लिए भी बहुत कुछ रहा है .जीवनानुभव भारतीय होते हुए भी उनके  पाठकीय अनुभव का क्षितिज विस्तृत और हिंदी से लेकर अंग्रेजी तक फैला रहा है . यही कारण है की उनके संसमरणों में आकर स्थानीय चरित्र भी वैश्विक परिदृश्य और विमर्ष का एक माध्यम बन जाते हैं .उन्होंने हर मनुष्य को सार्थक और महत्वपूर्ण मानने वाली आंख पा ली है .कृष्ण के ग्वालों और राम  के वानरों की तरह  डॉ ० पी ० एन ० सिंह भी अपनें समकालीनों अस्तित्वों के भीतर सार्थक का आवाहन और नियोजन करना जानते हैं .उनके लिए भी कोई अमहत्वपूर्ण और अप्रतिष्ठित किया जाने योग्य नहीं है . किसी  सामाजिक -राजनीतिक इतिहास पुरुष की तरह वे भी अपने समकालीन अस्तित्वों को आलोकित और अवलोकित किए जाते हैं . हरा जीवन और हर मृत्यु उनके लिए एक महत्वपूर्ण परिघटना है .मध्यवर्गीय बुद्धि जीवियों से लेकर राष्ट्रीय ख्याति के नायकों तक उनका समदर्शी संसमरणानात्मक विमर्श  चलता रहता है . कुछ नितान्त पारिवारिक हैं तो  कुछ अंतरंग मित्र ,कुछ साहित्यिक नायक हैं तो कुछ सामाजिक और राजनीतिक इस तरह .इसमें साहित्यिक,राजनीतिक और व्यक्तिगत -तीनों ही कोटि के व्यक्तियों की स्मृति-चर्चा शामिल है . 
                           डॉ ० पी०एन० सिंह में रुदियों से बाहर के सच की खोज करने की प्रवृत्ति आरम्भ से ही रही है .पश्चिम बंगाल में प्रवास की मार्क्सवादी पृष्ठभूमि के साथ सर्वजन हिताय एवं समावेशी को ही महत्वपूर्ण मानने के कारण उनका चिंतन सभी प्रकार की संकीर्णताओं का अतिक्रमण करता है .यद्यपि उनकी जाति-निरपेक्ष उदार संवेदनशीलता का रहस्य उनकी माँ से मिले वे संस्कार तथा परिवार में पगली माई के नाम से प्रतिष्ठित उस शूद्र महिला की उपस्थिति भी रही होगी जिनका आजीवन निर्वाह उनके परिवार नें किया था .उनका दलितों एवं अम्बेडकर से सम्बंधित चिंतन जिसे उनकी जाति देखने वाले दलित चिंतकों को भी अवसरवादी या ओढ़ी हुई लग सकती है -वस्तुतः उनकी  ऐसी  संवेदनशीलता की पाण्डुलिपि उनके पारिवारिक पर्यावरण नें ही लिखी है . यही कारण है कि उनके लेखक और व्यक्ति की संवेदनात्मक उदारता हमेशा ही एक व्यापक नागरिक वृत्त का चयन करने के पक्ष में रही है .प्रतिबद्ध मार्क्सवादी होने के बावजूद उनका लेखकीय विवेक किसी भी वाद की जड़ताओ एवं प्रभावात्मक तात्कालिकताओं को भी समझाने और समझाने का प्रयास करता रहा है .ऐसी दृष्टि उन्हीं विचारकों के पास संभव है ,जिसके पास वैज्ञानिक तटस्थता तथा तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य वाला इतिहासबोध हो .
                           यह एक सच्चाई है कि अनुयायी मानसिकता के बुद्धिजीवी किसी बड़े आन्दोलन का हिस्सा बन सकने की क्षमता यानि संगठनात्मक ईकाई होने के कारण  , प्रायः समकालीनता में प्रासंगिक किसी विचारधारा का राजनीतिक पाठ  प्रस्तुत करने की दृष्टि से ही उपयोगी होते हैं  .असहमत बुद्धिजीवी प्रतिगामी भी हो सकते हैं और प्रगतिशील भी .समकाल में उपस्थित उचित-अनुचित गतिशीलता की पहचान इतिहासबोध से सम्पन्न कोई समय-संवेदी विचारक ही कर सकता है .पी०एन० सिंह की आलोचना में भी उनकी अनौपचारिक एवं खुली संवेदनशीलता तथा व्यापक सामाजिक सरोकार ही विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं . उनके लेखक में उचित-अनुचित का सहस और विवेक दोनों का संगम है .तभी तो वे भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सिंह पर यह बेलौस टिप्पणी कर पाते हैं कि "उनकी राष्ट्र हिता चिन्तक के रूप में जो छवि बनी थी ,वह कुर्सी के लिए कुर्बान हो गयी .मेरी समझ में  प्रधानमंत्री बनकर चंद्रशेखर नें बहुत कुछ खोया था .हाँ कुछ भौतिक सुविधाएँ जरूरत बढ़ गयीं ,बस ! लेकिन उनकी हेकड़ी ,उनकी जिद का क्या किया जय .महत्वाकांक्षा अँधा बनाती ही है . "
              पोस्टमैन सबीर अली के माध्यम से उनका ध्यान मुस्लिम समाज की रूढ़ी वादिता  एवं उनमें व्याप्त अशिक्षा पर जाता है .इसी सन्दर्भ में उनकी अशिक्षा दूर करने के सर सैयद द्वारा किए गए ऐतिहासिक प्रयास पर जाता है -जिनकी दृष्टि में 'अंग्रेजी शिक्षा एकमात्र रास्ता है जिससे मुस्लिम दिमाग अपनी पुरानी अंधी और सीधी चिंतन-प्रक्रिया से मुक्त हो सकता है .' पी.एन.सिंह  की दृष्टि में चिंतन की स्वतंत्रता के बिना धर्मं मात्र यंत्रवत कर्मकांडों और खतरनाक अंधविश्वासों में विकृत हो जाता है .उनकी यह टिपण्णी महत्वपूर्ण है कि 'कोई भी व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के दायरे में ही समझा जा सकता है  और अगर आदमी सामान्य है तो उससे यह उम्मीद करना कि वह इसे अतिक्रमित कर किसी मानवीय सार्वभौम पैमाने पर अपनी मान्यताओं को समझे,संभव नहीं है .'

'अब रामा भी नहीं रहा ' 20-21 जनवरी 2008 को ह्रदय गति बंद होने से दिवंगत हुए अपने लगभग 10 -12 वर्ष  छोटे भाई  रमाशंकर सिंह (रामा)की स्मृति को सम्बोधित  शोक-निबंध है .कृषि से बी.एस .सी.और  समाजशास्त्र से एम.ए. होने के बावजूद छोटे भाई रामा द्वारा कृषि-कार्य करने का स्वैच्छिक निर्णय परिवार-संस्था के परंपरागत स्वरूप और वातावरण को बनाए रखने का स्वाभाविक निर्णय भी रहा होगा .पी.एन.सिंह की लोकाभिमुख आदर्शवादी सम्वेदनशीलता का व्यावहारिक पूरक विस्तार रमाशंकर सिंह को  लोकप्रियता तथा ग्राम-प्रधानी तक तो ले गया लेकिन एक लोक-समर्पित प्रेमी की भांति पूरे गाँव को अपना परिवार मानने की अतिरेक पूर्ण  अपेक्षाएं उन्हें उस अवसाद बोधा तक भी ले गयी जिसाकी परिणति शराबखोरी ह्रदयघात और अंततः असामयिक मृत्यु में हुई .यह निबंध भी रमा के साथ-साथ कई अन्य स्वजनों-परिजनों का भी प्रासंगिक रेखांकन प्रस्तुत करता है .बाबा ,माँ ,पिता ,निराश्रित एवं दलित वर्ग से आने के बावजूद परिवार में रिश्तों की गरिमा से समादृत धाय माँ मूर्ती देवी ,छोटी बहन विमली आदि अनेक स्वजनों का सूत्रात्मक व्यक्तित्वंकन  प्रस्तुत करता यह निबंध भाई की मृत्यु के तीसरे और दसवें दिन लिखा होने के कारण जीवन की एक अपरिहार्य सच्चाई मृत्यु का मर्मस्पर्शी विमर्ष प्रस्तुत करता है .जीवन में प्रेम और वासना के आवेग की तरह दुख के परिस्थितिजन्य आवेग को भी धैर्य और संयम के साथ ही जिया और जीता जा सकता है .उच्चशिक्षित होते हुए भी अशिक्षिता किसानों की तरह लुंगी-बनियें की स्वान्तःसुखाय वेश-भूषा में गाँधी की तरह सादगी को गौरावबोध के साथ महिममंडित करते हुए जीना भी किसी त्रासदी को जन्म दे सकता है -कुछ ऐसा ही  सन्देश रामा पर लिखा गया यह मार्मिक स्मृति-चित्र देता है .अपने कनिष्ठ भाई रामा पर पी.एन.सिंह की  इस अनुभूत टिप्पणी को इसी त्रासदी के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए-'रामा शरीर संस्कृति का आदमी था और शरीर पर इतना विश्वास कि वह कुछ भी झेला सकने की स्थिति में था .अंततः इस शरीर नें ही उसे धोखा दिया ,उसके मित्रों की तरह ,जिनकी चर्चा भी वह कभी नहीं करता था ."  

 राहुल संकृत्यायन की जन्म शती के संदर्भा में लिखे गए आलेख  "राहुल जी को याद करते हुए "में  वे राहुल के युगीन अवदानों की पड़ताल करते हैं .राहुल के बुद्धिधार्मी नेतृत्व की उन विशेषताओं  की पडताल  करते हैं  जो उन्हें अन्य समकालीन युग पुरुषों  गाँधी और सहजानंद से अलग करती है .उनके लेखन के अधिकांश को  परिचयात्मक और प्रचारात्मक बताते हुए भी डॉ ०पी० एन ० सिंह राहुल को गाँधी जी और स्वामी जी के सीमित एवं परंपरागत ज्ञान बल की तुलना में श्रेष्ठतर पाते हैं . वे राहुल की "विपुल ज्ञान सम्पदा ,वैकल्पिक परिप्रेक्ष्यों की गहरी समझ तथा नए प्रयोजनीय  आयामों के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता ' के लिए प्रशंसा करते हैं .वे राहुल को आस्था के ऐसे अन्वेषी विचारक के रूप में देखते हैं ,जिनकी आस्था का केंद्र कोई लोकोत्तर शक्ति नहीं बल्कि इहलौकिक मनुष्य था .उनकी इस समझा को रेखांकित करते हैं कि 'सनातनी हिन्दू दायरे में सामाजिक -बौद्धिक विवेक संभव नहीं है तथा इस्लाम के देशीकरण और उर्दू लिपि के देवनागरीकरण ' के सुझाव को भी . पी०एन० सिंह के अनुसार 'राहुल जी भारतीय नव जागरण के अन्तिम युग-पुरुष हैं .राहुल को बुद्धि और विवेक से युक्त ' मध्यमा प्रतिप्रदा ' वाली वाम परंपरा को अतीत को  वर्तमान और भविष्य की अपेक्षाओं  के सन्दर्भ में देखने वाला मानते हैं .
                   जन्म -शताब्दी वर्ष में ही लिखा गया भगत सिंह और पी.सी.जोशी को याद  करते हुए  शीर्षक आलेख भारतीय स्वतंत्रता का मूल्यांकन साम्राज्य  विरोधी राष्ट्रवाद की सीमाओं के साथ करता है .यह लेख वर्तमान उपभोक्तावादी  पागलपन वाले दौर में एक प्रतिबद्ध समाजवादी राजनीति की वापसी के औचित्य पर प्रकाश डालती है .शहीद भगत सिंह की विचारधारा ,समझ और उनके शहादत  की अर्थवत्ता  को रेखांकित करने वाला यह लेख ,आक्धुनिक भारतीयता  के प्रेरणा पुरुष  भगत सिंह के आदर्शों को उनकी केन्द्रीय  अभिव्यक्तियों के माध्यम से पुनर्प्रस्तुत करता है .        
                   डॉ ० रामविलास शर्मा का न होना शीर्षक निबंध डॉ ० शर्मा के होने के बहाने उनके होने को विस्तार और५ गंभीरता के साथ समझने का प्रयास है . उनके अवदान को वे ' प्रगतिशील सोच और विवेक को उत्तरोत्तर समन्यबोध बनने वाली पीढ़ी के वैचारिक संघर्ष से जोड़ कर देखते हैं .पी०एन० सिंह के अनुसार डॉ ० शर्मा नें हिंदी के विशुद्ध आलोचना कर्म को 

Monday, 12 June 2017

किताबे

किताबें एक मनुष्य को
दूसरे मनुष्य के दिमाग के भीतर तक ले जाती हैं
पहले के लोगों की तरह हम भी कह सकते हैं इसे परकाया -प्रवेश !


किताबें कम समय में
किसी के द्वारा जीवन भर की गयी यात्रा का पता दे देती हैं
ऐसे ही नहीं बनी हुई हैं वे
जीवन की सबसे जरुरी चिट्ठियां !


एक समान जिल्द के बावजूद
उनमें दर्ज हैं अलग-अलग आदतें और रुचियाँ
स्वभाव तथा अंग-प्रत्यंग ....
इन्हें समान समझने की गलती न करें
इस दूकान में करीने से सजा कर रखे गए हैं
इनको लिखने वाले लोगों के दिमाग ...


कुछ किताबों में दौड़ते पैर यात्राएं और उनकी आत्मकथा है
तो कुछ में धड़कते दिल की दास्तान
कुछ में आँखों देखा हाल है तो
तो कुछ में है आत्मा बेहाल
कुछ ऐसी भी किताबें हैं फिसलन भरी
सीढ़ियों जैसी
जिनके पीछे है दुनिया-जंगल ...


"कभी-कभी ही कोई ग्राहक
मांगता है उस किताब को ...
लेकिन जब मांगता है
उसे नहीं न कहना पड़े
रखनी पड़ती है वह किताब ..".1


कुछ किताबें छपकर भी दम ताड देती हैं
और कुछ किताबें छपती जाती हैं बेहिसाब
कुछ किताबों का कोई नामलेवा भी नहीं बचता

कुछ किताबों का रखता ही नहीं कोई हिसाब ...

Thursday, 8 June 2017

मार्क्सवाद का राजनीतिक और सांस्कृतिक पाठ (ब्राह्मणवाद के सन्दर्भ में )

मुझे लगता है कि कुछ समयं तक मार्क्सवाद को सिर्फ व्यवस्था और राजनीति तक ही सीमित रखना था | उसकी सांस्कृतिक असहिष्णुता जो कुछ-कुछ मूसा के यहूदी धर्म और इस्लाम जैसी रही -उसे ले डूबी | अरे भाई तुम शोषण-मुक्त व्यवस्था बनाते -सिर्फ रोजीरोटी और बराबरी देने के नाम पर सोवियत रूस से लेकर भारत तक हर जगह सभी के सांस्कृतिक स्मृति के विलोपन की बात करने लगे | अब सभी सभ्यताओं का अतीत धार्मिक है | धर्म के वैचारिक उच्छेद के कारण अतीत की सारी स्मृतियाँ ही बिना सामानांतर वैकल्पिक विकास के ही उच्छेद योग्य घोषित कर दीी गयीं | कई ऐसे धार्मिक मेले हैं जिनकी इलाके में जन-मन की नीरसता को दूर करने में समाज-मनोवैज्ञानिक भूमिका भी है | होली जैसा विशुद्ध मौज-मस्ती का पागलपन के दौरे जैसा अद्भुत अतार्किक पर्व है | स्वयं को ,मार्क्सवादी घोषित कीजिए और मनहूस की तरह जाकर घर में बैठ जाइए | इसीलिए मैं हमेशा ही मार्क्सवादी दृष्टि और बोध को स्वीकार करते हुए भी उसकी संगठनात्मक असहिष्णु ,हिंसक किस्म का शुद्धतावाद और उसको बिना किसी प्रश्न किए तुरंत सही मान लेने के शत-प्रतिशत समर्पण की माँग से असहमत होने के कारण विवेक की नैतिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए स्वयं को सामुदायिक मार्क्सवादी घोषित करने से बचता रहा | यह कोई भी देख सकता है कि मेरे विश्लेषण और स्थापनाओं की पृष्ठभूमि में मार्क्सवाद कीी समझ भी अनिवार्य रूप से रहती है | फिर भी विचारधारात्मक रुढ़िवाद का
मैं विरोधी हूँ और मुझे लगता है कि मानवता के विवेकपूर्ण भविष्य के लिए तथा ईमानदार विचारक होने की स्वतंत्रता के लिए दक्षिण-पंथ और वामपंथ दोनों ही अँध-भक्त समूहों से ही उचित दूरी बनाए रखनी होगी |
दरअसल राजनीतिक कारणों से ही( जिसमें साम्यवादी कांग्रेसी सेक्युलरवादी ,दलित और पिछड़ी की राजनीति करने वाली सभी दलों की विचारधारा सम्मिलित है ) ब्राह्मण वाद और हिन्दू धर्म पर भी कभी ठीक से मार्क्सवादी आधारों पर वैचारिक बहस नहीं हुई है | संस्कृत भाषा और भाषा-विज्ञान के उन्नत विकास के कारण ब्राह्मणवादी कर्मकांड का एक बड़ा हिस्सा प्रतीकात्मक एवं काव्यात्मक भी है | समाजशास्त्रीय दृष्टि से उसमें आदिम मनुष्य की कविता और उदात्त समर्पण की भावना भी छिपी हुई है | यह उसका साहित्यिक गुणवत्ता वाला पक्ष है और मुझे नहीं लगता कि उसका अनावश्यक विरोध किया जाना चाहिए | वैसे भी सांस्कृतिक कार्यक्रम फुरसत की आस्वाद धर्मिता का हिस्सा हुआ करते हैं | भोजन से लेकर भजन तक वे भी मानवीय सृजनशीलता का एक पाठ प्रस्तुत करते हैं | चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी संप्रदाय और सूफी संगीत में दिल को छू लेने वाली ऐसी ही मौलिक सृजनशीलता मिलाती है | इसीलिए ऐसे विरोध को मैं गैर-जरुरी घृणा का विस्तार मानता हूँ | जब आप एक बार किसी से घृणा करने लगते हैं तो उसकी अच्छी बातें भी आपको बुरी लगने लगती हैं| मनुस्मृति की बहुत सी बातें भारत के बौद्धों के उच्छेद काल से जुडी और उसका राजनीतिक साजिशी पाठ प्रस्तुत करती हैं | पहले के लोगों द्वारा ऐसे षडयंत्र को समझ पाना संभव नहीं था | आज तो कोई भी ब्राह्मण घराने में जन्मा युवक उन साजिशों को समझ सकता है | यदि ऐसा होता तो अवर्ण-सवर्ण का भेदभाव अप्रासंगिक होता लेकिन ...|?
यह एक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि यदि कोई प्राचीन शैली की पूजा करता है और ब्राह्मण बिरादरी से है तो पुरखों की परंपरा और लिखित स्मृतियों का उत्तराधिकारी दबाव ज्यादा होने के कारण उसका संरक्षणवादीो और समर्पणवादी होना आश्चर्य का विषय नहीं है | ब्राह्मणवाद (पुरोहितवाद) की निंदा का आधार उसका असमानतावादी जातीय पूर्व्बग्रह होना चाहिए न कि उसका साझा सांस्कृतिक पाठ जिसमें लम्बे भारतीय जीवन के अनुभव समाए हुए हैं | यह एक मार्क्सवाद सम्मत तथ्य है कि सामंती पूंजीवाद ने ही उन सभी अवधारणाओं और नैतिक मूल्यों का विकास किया है जो आज भी हमारे सभी समाज की संरचना और व्यवस्था के आधार है | अब राम की भक्ति को ही ले लीजिए -यह कथा एक पत्नी विवाह और पारिवारिक एकता को प्रोत्साहित करती है | यह सच है कि मध्य काल में इसके प्रचार-प्रसार का ठेका ब्राह्मण जातीय बुद्धिजीवियों के पास रहा है | इसी तरह शिव शूद्र पौराणिक नायक है | ईमानदारी से सवर्ण इसे स्वीकार कर लें और उसका प्रचार करें तो शूद्रों को सिर्फ रविदास और अम्बेडकर से ही काम चलाना नहीं पड़ेगा | ब्राह्मणवाद से मोक्ष के लिए भी उसको ठीक-ठीक समझना होगा | जातीय विद्वेष के आधार और सांस्कृतिक दाय दोनों को ही अलग-अलग और सही-सही समझने-समझाने की जरुरत है |
सिर्फ पीपल का ही उदहारण ले लें तो नास्तिक भाव से भी चिड़ियों की बीट से उगे इस पौधे को उखाड़ कर उसे बड़ा होने तक सिचित करने की जरुरत है | धार्मिक बड़े पेंड़ को बिना मतलब सींचता है तो नास्तिक विवेक से छोटे पोधे को सींचे -लेकिन सींचे तो | जीवन का सूना क्षितिज भरने और बहुरंगी बनाने में प्राचीन मनुष्य की सृजनशीलता का अपना महत्त्व है \आत्मस्थ निष्क्रिय चिंतकों की कोई सांस्कृतिक भूमिका नहीं बनती |प्राचीन काल के भी गुफा गेही ऋषियों (पुरखे बुद्धिजीवियों ) को भुला दिया गया | सांस्कृतिक नायक वाही बने जिन्होंने लोक के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर साझा जीवन जिया | इसलिए कट्टर बुद्धिवादी भी अपनी सीमा को समझें और हो सके तो नए पर्व और उत्सव पैदा करें |बिना विकल्प दिए जीवन को नीरस बनाना समझदारी नहीं है

Wednesday, 7 June 2017

साम्प्रदायिकता

इतिहास का पिछला अनुभव तो यही बताता है कि नयी सभ्यता के अंकुर वहीँ से फूटे जहाँ सभ्यता नें मानव विवेक को जड़ीभूत नहीं किया था .इंगलैंड से नयी सभ्यता का आरम्भ तो कुछ ऐसा ही ऐतिहासिक अनुभव देता है .जैसे लिखे हुए कागज की तुलना में बिना लिखे हुए सादे कागज संभावना के रूप में अधिक आकर्षित करते हैं .जैसे लिखा हुआ कागज कुछ नया लिखने के प्रयोजन से बेकार हो जाता है ,वैसे ही हर रूढ़िवादी समुदाय मानवजाति के नए विकास की दृष्टि से |
अधिकांश पुरानी सभ्यताएँ लिखे हुए कागज की तरह हैं -संभव है कि उनका कुछ पाठ अब भी उपयोगी हो लेकिन वे आज की तुलना में कम वयस्क एवं अवैज्ञानिक मानव-प्रजाति की धारणाएँ हैं .इसीलिए आज पुराने रूप में हिन्दू या मुस्लमान होना एक अतीतजीवी एवं अयोग्य जनसंख्या का हिस्सा होना है . यह सच है कि पाकिस्तान के निर्माण के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य नें दक्षिण एशिया के इस हिस्से को ऐसे दुष्चक्र में धकेल दिया है साम्प्रदायिकता के आधार पर विभाजित , व्यापक नरसंहारों की स्मृति लिए दक्षिण एशिया का यह भूभाग सैकड़ों वर्षों तक जलता रहेगा | इस दृष्टि से मैं असजग भारतीयों और पाकिस्तानियों को ऐतिहासिक मूर्ख के रूप में देखता हूँ .एक औपनिवेशिक सत्ता द्वारा जानबूझकर वैज्ञानिक चेतना वाले विकास से विपरीत दिशा में सम्प्रदयिकता की ओर भटकाए हुए लोग ....
अतीत के अव्याख्यायित-अपरीक्षित विश्वास में पड़े लोग अच्छा या बुरा वर्तमान रच रहे होते हैं ,जबकि अविश्वास में पड़े लोग मानव के भावी विवेक की संभावना के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं .

Sunday, 4 June 2017

अस्तित्व -विमर्श

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                                                                                                                 स्कन्द शुक्ल 

नौ महीनों बाद एक बच्चा पैदा करने के लिए इतनी बर्बादी किसलिए ? पुरानी धार्मिक मान्यताएँ जो सेक्स को गर्हित बताती हैं और यौन-क्रिया में हिंसा-वृत्ति देखती हैं , वे कहीं-न-कहीं कुछ ढाँपने-छिपाने का प्रयास कर रही हैं। उन्हें डर था और है कि अगर इस मनुष्य-वृत्ति को ढीला छोड़ा गया तो समाज में बिखराव हो जाएगा। यौनक्रिया को विवाह से जोड़कर देखने के पीछे भी यही बात काम करती है। आदमी की औरत से शादी दो व्यक्तियों का मेल बाद में है : पहले यह जैविकी का सामाजिकी से विवाह है। बायलॉजी को उन्मुक्त छोड़ना सोसायटी को वापस रिवाइंड करने का काम करने लगेगी।
मगर फिर विवाह और यौनकर्म का सम्मेल हर जगह एक सा कहाँ है। वह हो भी नहीं सकता। जैविकी तो हर मनुष्य की एक ही है , क्योंकि वह कुदरती है। लेकिन सामाजिकी मनुष्य ने स्वयं बनायी है। और जो आदमी द्वारा निर्मित वस्तु है , उसमें शाश्वत होने का भाव कैसे हो जाए ?
धर्म पर अटूट आस्था के पीछे का मनोविज्ञान उसे कुदरती साबित करना है। आप मान लीजिए कि मेरा वाला मजहब कुदरती है। यह मैंने या किसी आदमी ने नहीं बनाया , यह हमेशा से ऐसे ही था। यह आदिकालिक है। यह प्राकृतिक है। यह मूलतः यों ही था , यों ही है , यों ही रहेगा।
शाश्वत कुछ भी नहीं है। न कोई समाज , न लोकाचार और न कोई मानव-मूल्य ही। भूगोल तक बदल जाता है। ग्रह-तारे बदल जाते हैं। यहाँ तक की शरीर की क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ भी एक सी सदा-सर्वदा नहीं रहती , न रहेंगी।
अमीबा देखा न हो आपने सूक्ष्मदर्शी तले , पर उसका नाम शायद ज़रूर सुना होगा। अमीबा-जैसे एककोशिकीय प्राणी अमूमन अलैंगिक प्रजनन करते हैं। उनमें हमारी तरह नर-मादा नहीं होते। एक कोशिका कुछ समय बाद दो में बँट जाती है और फिर कुछ समय बाद दो से चार हो जाती हैं। मनुष्य भी तो ऐसे बँट सकता था। एक आदमी से वह दो बन जाता और फिर दो से चार। इतने ताम-झाम की भला क्या आवश्यकता थी ?
आम मनुष्य की सोच यह है कि यह बर्बादी केवल पुरुष के शरीर में होती है। वह ही केवल एक अण्डाणु के निषेचन के लिए लाखों शुक्राणु छोड़ता है। ज़रूरत केवल एक की है। बाक़ी सभी नष्ट होंगे। लेकिन स्त्रियाँ बर्बादी नहीं करतीं , यह सोचना भ्रम है। उनके शरीर में हर माह निकलने वाले एक अण्डाणु के बदले आठ-दस अण्डाणु अर्धविकसित ही नष्ट हो जाते हैं।
रमेश जो कि एक स्वस्थ पुरुष है , हर सेकेण्ड 1500 के लगभग शुक्राणु बनाता है। रमेश के कितने बच्चे हैं ? एक। या दो। या तीन-चार-पाँच-दस-पन्द्रह। इमरती देवी जब पैदा हुई थी , तो बीस लाख अल्पविकसित अण्डे लेकर जन्मी थी। वे सभी कहाँ गये ? उनमें से कितने रमेश के साथ मिलकर बच्चों में बदल पाये ?
इस हिंसा में , इस नाश के पीछे भी कोई है जो जी रहा है। इस मारकाट से भी किसी का भला हो पा रहा है। प्रकृति रमेश या इमरती देवी के लिए नहीं सोचती। वह मनुष्य-जाति के लिए सोचती है। या फिर वह उससे भी बड़ी सोच रखती है और समूचे जीवन के लिए सोचती है। या फिर वह कुछ सोचती ही नहीं। यह सोचना मैं सोच रहा हूँ और आपको सोचवा रहा हूँ। खरबों वीरान तारों और खरबों निर्जन आकाशगंगाओं को सोचकर बनाया नहीं गया , नहीं तो किफ़ायत बरती जाती। सुजन-समझदार आदमी सफ़ेद कमीज़ पर काला दाग लगाता है। यहाँ मौत की काली कमीज पर सफ़ेद टीका है ज़िन्दगी का।
सेक्स की तैयारी के लिए की गयी बर्बादी के पीछे मूलवृत्ति मनुष्य-जाति का उत्तरोत्तर विकास है। हर जीव पैदा नहीं हो सकता , हर जीव को कुदरत पैदा नहीं करना चाहती। वह चाहती है कि सबसे श्रेष्ठ ही प्रजनन के फलस्वरूप संसार में आये और फिर वे प्रजनन करके संसार आगे बढ़ाएँ। हर बेटा बाप से बेहतर हो। नम्बरी को दस नम्बरी चाहिए ( विकास के अर्थ में ! ) और दस नम्बरी को सौ नम्बरी।
प्रकृति की यह मूल मंशा है। लेकिन ऐसा हमेशा हो ही जाएगा ज़रूरी नहीं। उसकी गोद में इंसान ही एकमात्र बच्चा नहीं है। साधारण माइक्रोस्कोपों से न दिखने वाले वायरसों से लेकर भीमकाय नीली ह्वेलों तक उसके पास हर साइज़ का शिशु है। ये बच्चे आपस में भिड़ सकते हैं , एक-दूसरे को चोटिल कर सकते हैं , यहाँ तक कि एक-दूसरे को मिटा भी सकते हैं। फिर जिस गोद में जिस हाथ में ये सब हैं , वह ही उसका एकमात्र हाथ नहीं। कुदरत के सहस्रों हाथ हैं। वह न जाने कुछ सोचती है और दूसरे हाथ से इस हाथ की साड़ी बनावट गिरा देती है। एक ही पल में सब समाप्त ! फिर किसी हाथ में नये शिशु गढ़ने लगती है।
लैंगिक प्रजनन इसलिए होता है कि नर और मादा अलग-अलग व्यक्ति हैं , अलग-अलग परिवारों से हैं। उनकी कोशिकाओं में मौजूद डी.एन.ए. में विविधता है। शुक्राणुओं और अण्डाणुओं का निर्माण साधारण कोशिका-विभाजन से नहीं होता , विशिष्ट ढंग से होता है। फिर इस विशिष्ट निर्माण के बाद जब सेक्स होता है तो नर का शुक्राणु मादा से अण्डाणु के डी.एन.ए. से मिल जाता है। दो डी.एन.ए. मिले और जो तीसरा इस दुनिया में आया , वह न अपने बाप-सा है पूरी तरह , न माँ-सा। वह दोनों-सा है , दोनों-सा ही होगा।
जब कोई कहता है कि मेरी बिटिया मुझसी है या मेरा बेटा मुझसा है , तो वह केवल बाह्य-सतही बात का रहा होता है या फिर थोड़े-बहुत गुण-स्वभाव की। उसने यह नहीं देखा-जाना होता कि बिटिया के मस्तिष्क की कोशिकाओं में अमुक काम मम्मी या डैडी , किससे मिलता है या फिर हड्डियों का घनत्व किस्से मेल खाता है।
आदमी-औरत चाम की सतह-भर नहीं हैं। वे बहुत-बहुत और भी कुछ हैं उसके भीतर। आपकी सन्तान पूरी तरह से आप-सी तभी हो सकती है , जब वह अलैंगिक प्रजनन से पैदा हो। दो मिलकर किसी को पैदा करेंगे , तो वह दोनों-सा / दोनों-सी होगा/होगी। यह विभेद , यह बदलाव ज़रूरी है ताकि मानव विकास करता रहे।
सेक्स की इस जटिल तैयारी में शरीर का खर्चा बहुत हुआ है। लेकिन उस खर्चे से जो औलाद उसके हाथ आने की उम्मीद है , वह पिछली पीढ़ी से बेहतर होगी इसकी उसे आशा है।