Wednesday, 2 November 2016

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी कृत ‘‘आधुनिक साहित्य’’ और हिन्दी आलांेचना:
                  अवदान और मूल्यांकन                  
                                                                                                    डाॅ0 दीपा सिंह
आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी हिन्दी आलोचना के उद्भावक आलोचक हैं। ‘‘उद्भावना’’ उनकी आलोचना का प्रिय शब्द है।यह उद्भव और उद्भाव दोनो ही अर्थ-स्तरों पर उनकी आलोचना-दृष्टि को मूल्य प्रदान करता है । अपनी आलोचना-पुस्तक ‘‘आधुनिक-साहित्य’’ को वे सन् 30 से 42 तक के हिन्दी साहित्य की कतिपय मुख्य-कृतियों और प्रवृत्तियों का विवेचन करने वाले  समीक्षात्मक निबन्धों का संग्रह कहते हैं। भूमिका में वे लिखते हैं कि‘ हिन्दी में साहित्यिक विवेचन की कमी के कारण इन निबन्धों में नई उद्भावना के लिए पूरा स्थान रहा हैं।.....मेरी ये समीक्षाएं और निबन्ध निर्माण की पगडण्डियाॅं हैं ।(प्ृश्ठ-9)
              अपनी  इसी  पुस्तक की भूमिका में वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की रुचि और प्रतिबद्धता जन्य सीमाओं को रेखांकित करते हुए भी  उनके ऐतिहासिक योगदान को उद्भावना के स्तर पर ही  मूल्यांकित करते हैं।  उन्होंने लिखा है कि मानवीय मनोभावों का सुन्दर और स्पष्ट अध्ययन लेकर शुक्ल जी ने उसके स्थान पर भारतीय काव्यशास्त्र की जो मनोरम व्याख्या की है , उसका ऐतिहासिक महत्व है। इस नयी व्याख्या के द्वारा उन्होंने देश की एक प्राचीन किन्तु विस्मृत-प्राय समीक्षा-प्रणाली को नयी दीप्ति और नया जीवन दिया । उनकी ये व्याख्याएं और निर्देश परम्परा का अनुसरण नहीं करते । उनमें  नये युग का नया विधान और नयी दृष्टि है ।तभी उनकी यह उद्भावना नये साहित्य को स्वीकार और मान्य हो सकी ।(प्ृश्ठ-18) ‘‘
            वाजपेयी  जी का युगबोध और उनकी आलोचना-दृष्टि उनकी  छोटी-छोटी टिप्पणियों में मुखरित हुई  है । पन्त जी के परवर्ती साहित्य पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि‘‘ सन् 32 या उसके आस-पास पन्त जी कवि के बदले कलाकार अधिक हो गए और काव्य-रचना के स्थान पर कुछ ऐसी कृतियाॅं करने लगे,जो ललित की अपेक्षा उपयोगी अधिक थीं  ; अथवा जो सीधे ही क्यों न  कहे काव्य की अपेक्षा काव्याभास अधिक थी ।’’
( पृष्ठ-29 )
       नयी कविता पर विचार करते हुए वे बच्चन की कविताओं को एक  नई आलोचनात्मक उद्भावना के साथ मूल्यांकित करते हैं -‘‘अनुभूति के क्षेत्र में बच्चन की सी गहराई छायावादी कवियों में कम मिलेगी ,यद्यपि बच्चन की यह गहराई अत्यधिक वैयक्तिक है ।’’( प्ृश्ठ-60)। प्रयोगवादी कवियों के रचनाकम्र की आलोचना वे ‘‘उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए करते हैं। उसे वे काव्य-दोष के रूप् में देखते हैं । वे इस निष्कर्ष पर पहुॅंचते हैं कि’’उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति’’ से यह जाहिर है कि कवि पर एक अतिरिक्त बुद्धिवादिता का शासन है । यह अनिश्चित मानसिक स्थिति का व्यक्ति है और काव्य की वास्तविक भावभूमि पर पहुॅंचने में अक्षम है।....उलझी हुई संवेदना की अभिव्यक्ति से तो मूलवर्ती कविकर्म  के ही अभाव की सूचना मिलती है ।ऐसी कमी जो कवित्व की सत्ता पर ही आघात करती है ।’’( प्ृा 0 68)उसी क्रम में वे पुनः बच्चन की सराहना करते हैं ।
         प्रयोगवाद का मूल्यांकन करते हुए वे उसके नकारात्मक एवं प्रतिगामी ऐतिहासिक प्रभाव को रेखांकित करना नहीं भूलते -‘‘प्रयोगवादी काव्य की इस अन्धाधुन्ध में सबसे बड़ी बुराई यह हुई है कि काव्य और कला सम्बन्धी स्थिर पैमानों पर किसी का विश्वास नहीं रहा ।  (प्ृ084)
         साकेत की समीक्षा में वे साहित्यिक धरातल पर नायकत्व का प्रतिमान टूटते देखते हैं-‘‘महाकाव्य की पद्धति के विरुद्ध साधु भरत को नायक और वियुक्ता उर्मिला को नायिका बनाया है । यह केवल एक साहित्यिक मौलिकता ही नहीं है ।इसमें सम्पूर्ण जीवन-दर्शन की एक क्रान्तिकारी झलक भी दिखाई देती है ं’’(पृ 0 87 ) उर्मिला और भरत का नायकत्व स्वीकार कर साकेत में पहले-पहल महाकाच्य की वीररस-प्रधान प्द्धति की उपेक्षा क्ी गयी है । यह एक ऐसा साहित्यिक प्रवर्तन है , जो आधुनिक युग के अन्य प्रबन्ध-काव्यों में भी प्रतिफलित हुआ है । ’’ ( प्ृष्ठ-88 )‘‘
साकेत में महाकाव्य सम्बन्धी नया आदर्श और प्रतिमान स्थिर करने का प्रयत्न जान-बूझ कर भले ही न किया गया हो ; परन्तु महाकाव्य विषयक क्रमागत व्यवस्था और परिपाटी से यह अनजाने में ही इतनी दूर चला गया है कि आधुनिक युग का नया साहित्यिक प्रवर्तन उसे स्वभावतः अपने विकास की आरम्भिक कड़ी मानकर चलता है ।’’( पृष्ठ-88-89 )
 इसके अतिरिक्त वे नवनिर्माण और महाकाव्यत्व के आलोचना-मान द्वारा साकेत का मूल्यांकन करते हैं । यहाॅं भी उनकी दृष्टि में नवीन उद्भावना और युगसम्मत आधुनिकता साकेत  के साहित्यिक महत्व के प्रमुख आधार हैं ।
       ‘ छायावादी काव्य-दृष्टि पर विचार करते हुए वे आचार्य शुक्ल की आलोचना की ऐतिहासिक सीमाओं पर भी विचार करते हैं-‘‘ साहित्य का जगत् से सम्बन्ध जोड़ देने के कारण शुक्ल जी साहित्य के न्ेतिक और व्यावहारिक आदर्शों की ओर इतना अधिक झुक गए कि उसके विशुद्ध मानसिक और भावमूलक स्वरूप का स्वतंत्र आकलन न हो पाया । नवीन आलोचना से ही इस कार्य का आरम्भ होता है ।’’ ( पृष्ठ-290 ) इसी क्रम में वे साहित्य की सार्वकालिकता के प्रश्न को उठाते हुए उनकी चिरस्मरणीयता और स्थायित्व को जातीय भावों और संस्कृति से जांड़ते हैं -‘‘ वास्तव में सभी महान कवि जातीय भावों और संस्कृति के प्रतिनिधि होते हैं , किसी विशेष वाद के नहीं । सामाजिक जीवन में नए परिवर्तन होने पर भी महान कवियों की भाव और कलाविभूति अपना आकर्षण नहीं खोती । वह स्थायी साहित्य और संस्कृति का अंग बन जाती है ।’’
( प्ृष्ठ-291 )
                इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी की आलोचना दृष्टि समकालीन
प्रचलित मान्यताओं से अछूता और अप्रभावित निष्कर्ष पाने में विश्वास करती है । वे पूर्वाग्रही आलोचक कभी नहीं रहे । तटस्थ विचारशीलता उनके आलोचक का मुख्य गुण है । इसीलिए वे छायावादी युग में नये का स्वागत कर सके और प्रयोगवादी साहित्य की तात्कालिकता और विचलन का भी सही मूल्यांकन कर सके । तटस्थ और निष्प्क्ष आलोचक दृष्टि ही वाजपेयी जी का मुख्य आलोचनात्मक अवदान है ।

Saturday, 29 October 2016

पाठकनामा

पाठक को लोकतान्त्रिक नजरिए से आलोचक की एकछत्र सत्ता से मुक्ति तथा सम्मान-भाव दिलाने के लिए ही मैंने १९८९ में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक का नाम 'दूसरा पाठकनामा' रखा था .भारतीय मध्यवर्ग और उसके बुद्धिजीवियों की संख्या आजादी के पहले जितनी कम थी ,निरक्षरों और अपढ़ों की भारी संख्या को देखते हुए गिने-चुने बुद्धिजीवियों का नेता हो जाना स्वाभाविक ही था .जिस तरह पांच-सात वकालत पढ़ने वाले राजनीतिक इतिहास में दर्ज हुए वैसे ही पाठक और लेखक के बीच बौद्धिक अंतर को देखते हुए आलोचक के रूप में साहित्यिक विशेषज्ञ का समादृत होना स्वाभाविक ही था .आलोचना और आलोचक की सत्ता का उत्थान और पतन का सम्बन्ध मध्यवर्ग और उसके बुद्धिजीवियों के विकास से भी है .आज एक साथ अच्छा लिखने पर भी वह प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं जो सीमित जनसंख्या वाले समय में कभी पूर्ववर्तियों को प्राप्त थी .सच तो यह है कि उस समय तक रचनाओं को समझाने-समझाने के लिए आलोचक के मध्यस्थता की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रह गयी थी .आलोचक का काम राजनीतिक प्रतिबद्धता के आधार पर कृति से अधिक कृतिकार की निष्ठा की परखा कर उसके अनुकूल या प्रतिकूल ,समर्थक या विरोधी होने का साहित्यिक फतवा जारी करना रह गया था .इसके बावजूद आलोचना के डॉ पेशेवर मंचों को बाजार नें संरक्षित और प्रोत्साहित किया था -पहला साहित्यिक पत्रिकाओं में सृजनात्मक आलोचना और समीक्षा का था तो दूसरा शैक्षणिक आलोचना का -जो कक्षाओं में साहित्य को कैसे पढ़ाया जाए इस समस्या के समाधान से सम्बंधित था .
दूसरा पाठकनामा से पूर्ववर्ती पाण्डुलिपि ' पाठकनामा' की थी जिसको सैद्धांतिक अवधारणाओं की पहली पुस्तक होना था ,जो कुछ मेरे आलस्य और कुछ अन्य जरुरी चिंतन की ओर अग्रसर हो जाने के कारण पाण्डुलिपि के रूप में अप्रकाशित ही पड़ी रही .अब वही पुस्तक ''रचना का चौथा आयाम '' नाम से प्रतिश्रुति प्रकाशन कोलकाता से प्रकाशित होने जा रही है . .फिलहाल उस समय दूसरा पाठकनामा की ही अच्छी समीक्षाओं नें जिनमें से जनसत्ता में सुरेश शर्मा द्वारा लिखित समीक्षा का प्रकाशन भी शामिल है .बाबरनामा की तर्ज पर रखे गए इस नाम नें लोगों को इतना प्रभावित किया था कि आज पाठकों के पत्र स्तम्भ के लिए 'पाठकनामा नाम हिंदी साहित्य में सर्वस्वीकृत सा हो गया है . दैनिक जागरण ,शुक्रवार के पाठकनामा स्तंभों के अतिरिक्त मैंने इंटर नेट पर पाठकनामा नाम से ब्लाग भी देखा है .मैं इस शब्द के माध्यम से हिंदी-साहित्य में पाठकीय लोकतंत्र का प्रसार करने वाले सभी सम्बंधितों को इसके लिए साधुवाद- धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ

Friday, 28 October 2016

हृदयेश मयंक

हृदयेश मयंक की पहचान हिंदी जगत में उनके द्वारा सम्पादित पत्रिका 'चिंतन -दिशा 'को लेकर है .लेकिन उनके भीतर एक भले मनुष्य की वह गहरी संवेदनशीलता है जिसके बिना कभी बड़ा साहित्यकार बना ही नहीं जा सकता .आज जिस तरह जिंदगी के साहित्यकार और मनोरंजन के साहित्यकार संचार-माध्यमों में एक ही मूल्यांकन के पलड़े पर विज्ञापित हो रहे हैं उससे सार्थक और प्रचारार्थक साहित्य का भेद मिट सा गया है .हृदयेश मयंक जी नें अपने सद्यः प्रकशित कविता-संग्रह -'हम ये जो मिटटी के बने हैं 'के लिए भूमिका में लिखा है कि 'संग्रह की कविताएँ मेरे सुख-दुःख के समय में तनिक आह्लादित करने वाले संवादों की तरह हैं .ये मुझे मेरे कमजोर क्षणों में उबारती रही हैं .इसलिए मैं कविताओं को बहुत प्यार करता हूँ .''
उनके इस संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए जिंदगी को ही एक घटना की तरह देखती और दिखाती हुई कविता को गंभीर अर्थवत्ता सौंपती चलती हैं .वे अपने जिए हुए को और अपने आस-पास के जीवन-परिवेश को बहुत पास से और भीतर से देखना और दिखाना चाहते हैं .उनकी कविताएँ सामाजिक संवेदनशीलता को जीवन-सरोकार के रूप में प्रस्तुत करती हैं..एक ऐसे समाज की की जीवन-चर्या और उदासीनता का प्रत्याख्यान प्रस्तुत करती हुई जहाँ -''अन्दर नहीं झांकना चाहता था कोई /एक आग सदियों से जल रही है जहाँ /वहां आंच है ,धुंवां है ,बेचैनी है /बाहर निकाल पड़ने की /इसकी खबर क्यों नहीं है लोगों को ?"(पृष्ठ ४३ ,'खबर' कविता )'मैंने बांटना चाह दु:ख /वह चिपक गया छाती से "" या फिर उनकी 'वसीयत ' कविता को ही देखें -''यदि कहीं कोई टुकड़ा है /धरती का मेरे नाम /मैं उसे छोड़ दूंगा /तुम सबके लिए " (पृष्ठ ३१ ) या फिर 'दु :ख ' 'यदि कोई दिल पर हाथ रखा कर बताए /अपने सबसे करीबी का नाम /वह दूख के बारे में ही बतलाएगा '.या फिर 'जीवन को तो बचाना है ' की 'बन्नने होंगे जीवन के लिए नए सौन्दर्य-बोध 'जैसी चिंताए हृदयेश की कविताएँ मनोरंजन की कलात्मक प्रस्तुति नहीं बल्कि जीवन-परिवेश की चिंता और परिवेश की कविताएँ लगती हैं
उनकी कविताएँ कविता के बाजार से अलग हटकर हस्तक्षेप की इच्छुक सबसे संवेदनशील मनुष्य के एकांत-चिंता के रूप में लिखी गयी हैं .इस संकलन में 'गॉड पार्टिकल 'जैसी कविताएँ भी है जो मनुष्य की सभ्यता के विकास के साथ ईश्वर के बदलते चेहरों का भी शिनाख्त करती हैं तो 'एक स्त्री ' जैसी कविता भी है जो घर की देहरी में बंद और छंद को छूने को तैयार स्त्री का तुलनात्मक विमर्श प्रस्तुत करती है .
ऋषभ प्रकाशन, नयी दिल्ली -मुम्बई से प्रकाशित (ई-मेल- rishabh.pub@gmail.com mo. +918655559717 , +91 9757309777 ) से प्रकाशित उनकी कविताओं का संकलन जिंदगी की झांकियों ,पड़ताल और विमर्श की दृष्टि से महत्वपूर्ण है.

Tuesday, 11 October 2016

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र
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हिंदी समाज की सबसे बड़ी समस्या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो वह वनमानुष या औरंगउटान है जो जब तब हमारी बोलचाल की भाषा में हमारी अचेतन आदत का हिस्सा बना बाहर आ ही जाता है . भाषा का सबसे असभ्यतम हिस्सा उन गालियों का है.जो स्त्री जाति की लैंगिक समानता और सम्मान पर आधारित न होकर असमानता और अपमान पर आधारित हैं. उनमें कुछ ऐसा अचेतन छिपा है जैसे स्त्री होना दूसरे दर्जे का नागरिक होना है और अपमान की विषय-वस्तु है.भाषा में शब्दों के बाद भेद-भाव वाली भाषा की अभियांत्रिकी व्याकरण के स्तर पर मिलती है.प्राचीन काल जब भारत में स्त्री-पुरुष असमानता का भेद-भाव बहुत नहीं था तब भाषा भी बहुत विभेदकारी नहीं थी और राम तथा सीता दोनों के साथ 'गच्छति लग सकता था. मध्यकाल में इस्लाम के भेदकारी संस्कार नें राम और सीता को अलग-अलग 'जाता-जाती' कर दिया.
हिंदी में भाषिक असमानता,अपमान और अमानवीयता का सर्जक कबाड़ जातीय पूर्वाग्रहों के प्रचारक शब्दों में भी छिपा है.जिसे मानसिक रूप से कुछ पिछड़े लोग लज्जित होने के स्थान पर समूह-आपराधिक ढंग से अगड़ा होने का साधन समझते हैं.क्योंकि कुछ लोग ऐसी अनैतिक विरासत से असभ्यी सुख-लाभ करना चाहते हैं .इसलिए अवैध हथियारों की तरह उनका इश्तेमाल करना गर्व की वस्तु समझते हैं. राजनीति के अतिरिक्त भाषा ही इस विषमता की सबसे सशक्त प्रचारक है. ये वर्जित, निन्दित और घृणित शब्द यथार्थ में तो नहीं किन्तु आभासी रूप में असमनातावादी श्रेष्ठता का भ्रम सृजित करते रहते हैं.
यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि एशियाई मूल कीहिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के धर्म अन्त:;उपस्थित पुरोहितवादी सामूहिक अचेतन के कारण अपनी जाति और व्यक्ति केन्द्रित महिमामंडन के सांप्रदायिक प्रयास में सम्पूर्ण मानव-जाति की सृजन और अस्तित्वपरक संभावनाओं का मजाक उड़ाते हैं और उनकेप्रति अनास्था व्यक्त करते हैं.बहुत से लोग जो पिछले ज़माने के आध्यात्म के सामंती पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाते वे नहीं समझ पाते कि उनके आध्यात्म का भी कोई आपराधिक चेहरा हो सकता है और वह उनके महान ईश्वर को ही अप्रतिष्ठित करता है .उदहारण के लिए शूद्र भी एक आध्यात्मिक श्रेष्ठता की अवधारणा का ही अवधारणात्मक और वैचारिक प्रति-पक्ष है. ईश्वर के नाम पर विकसित यह जातीय दंभ भी दूसरों में हीनता का प्रचार कर स्वयं को अनैतिक रूप से महिमा-मंडित करता है. हिदुत्व केसाथ-साथ इस्लाम भी ऐसी ही आध्यात्मिकता को लेकर मानवता विरोधी होने का अभिशाप झेल रहा है..हिन्दुओं में जहाँ सत्य (और ईश्वर को भी ) को जाति का बंधुआ बनाया गया है वहीँ इस्लाम सिर्फ एक ही महान व्यक्ति की गवाही पर आधारित है .इस अवधारणा में किसीदूसरे मनुष्य की संभावित महानता का निषेध भी छिपा है. मेरी दृष्टि में यह संरचना श्रद्धेय के परिवार की पुरोहितीय पृष्ठभूमि के कारण ही है.जिसके कारण भावी मानव जाति के भी किसी भी मनुष्य की ईश्वर से साक्षात्कार की सैद्धांतिक गुंजाइश नहीं बचती. मेरा मानना है कि व्यक्तिगत रूप से कोई कितना भी बुद्धिमान हो ले उसे अपनी बुद्धिमानी की सृष्टि के लिए और भविष्य की बुद्धिमानी के लिए भी मानवजाति की सृजनात्मक संभावनाओं पर आस्था रखनी ही चाहिए. किसी एक व्यक्ति की तुलना में सम्पूर्ण मानव-जाति अधिक श्रद्धास्पद और महिमाशाली अस्तित्व है.
हिंदी में मिलने वाले बहुत से अपशब्द तो आध्यात्मिक मूल के धातु एवं अर्थों को छिपाए हुए हैं- जैसे चूतिया शब्द को ही लें तो इसके पीछे संस्कृत का च्युत शब्द है जिसका अर्थ है गिरा हुआ या पतित लेकिन अर्थ-परिवर्तन से यह आध्यात्मिक पतन कराने वाली स्त्री से जोड़ दिया गया है . इसी तरह दो- तीन दिन पूर्व मेरे एक अभिन्न मित्र नें मेरे शब्द - ज्ञान में यह कहकर इजाफा किया कि जिस छक्का को मैं छ: से बना मानता हूँ वह अपने पीछे हिजड़े का अर्थ भी छिपाए हुए है . यह सच है कि इस अर्थ के लिए भी हिंदी समाज ही जिम्मेदार है - लेकिन यदि ऐसा एक असभ्य समाज नें दिया है तो हमें उसके प्रचलन का निषेध करना चाहिए. लेकिन इस ज्ञानार्जन में एक बात मुझे खटकी. वह यह कि जैविक हीनता याजीनेटिक विकृति के शिकार किसी लैंगिक विकलांग को उसकी हीनता के लिए इसप्रकार अपमानित करना चाहिए जिस प्रकार हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हुए हम करते हैं. मित्र में भी मुझे हिजड़ा को हिकारती दृष्टि से देखने वाला परंपरागत असावधान मध्ययुगीन अचेतन व्यक्त होता दिखा . मुझे अष्ट्रावक्र ऋषि याद् आए जिन पर जनक के दरबार में उनकी विकलांगता पर हंसा गया था और उन्होंने प्राकृतिक विकलांगता पर हंसने वालों को मूर्ख कहा था . अपने एकाक्षी होने पर हंसने या उपहास करने वालों को जायसी ने भी ठीक नहीं माना . उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - मोहि पर हंसहु या हंसहु कुम्हारहु . अर्थात तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझको बनाने वाले कुम्हार पर !
       यही सोचकर मैंने अपनी एक कविता में जो' नया-ज्ञानोदय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी के समय छपी थी नपुंसक लिंगियों के लिए' अंतज' शब्द प्रस्तावित किया था- जिसका तात्पर्य था सबसे अंत में पैदा होने वाला. क्योंकि उनसे वंश - परंपरा आगे नहीं चल पाती इस लिए उन्हें अंतज कहा था. अन्यथा एक मनुष्य के रूप में जीवित उपस्थिति तो वे भी हैं ! हम एक संवेदनशील मानवीय समाज की रचना से कितने दूर हैं अब भी?
रामप्रकाश कुशवाहा
१२.१०.१६

Friday, 7 October 2016

राजेंद्र राजन

Thursday, 6 October 2016

राजेंद्र राजन की कविताएँ

आज राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,गाजीपुर के हिंदी-परिषद् की ओर से 'कविता : पाठ एवं समीक्षा' कार्यक्रम के अंतर्गत दिल्ली से आए जनसत्ता के वरिष्ठ सम्पादक एवं कवि राजेन्द्र राजन ने लगभग अपनी दस कविताओं का पाठ किया . इस अवसर पर उनहोंने 'पेड़' ,'हत्यारे','इतिहास में जगह',बामियान में बुद्ध','विजेता की प्रतीक्षा में','बुद्धिजीवी','बहस में अपराजेय','विकास' , 'नयायुग', 'ताकत बनाम आजादी' तथा 'पुछल्ला बल्लेबाज' आदिकविताओं काआकर्षक पाठ किया. कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध समालोचक डॉ०पी.एन.सिंह नें राजेंद्र राजन की कविताओं को सुनना एक अविस्मरणीय एवं मर्मस्पर्शी अनुभव बताया. उन्होंने कहा कि राजन की सभी कविताएँ बेहद अच्छी हैं और सही मनुष्यता की पहचान सौंपती हैं. अच्छे और संवेदनशील मनुष्य के मन की कलात्मक प्रस्तुति करती उनकी कविताएँ गंभीर प्रभाव छोड़ती हैं. अपनें समीक्षक वक्तव्य में उपन्यासकार रामावतार नें कहा कि मनुष्य सर्वोत्तम प्राणी है और मनुष्यता सबसे बड़ा धर्म. राजेंद्र राजन की कविताएँ मनुष्यता का यही सन्देश सौंपती हैं. राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. अनिल कुमार तिवारी नें राजेंद्र राजन को मुक्तिबोध के पथ का पथिक कवि कहा .उन्होंने कहा कि राजेंद्र राजन के पास बहुत ही स्वच्छ और परिष्कृति सामाजिक दृष्टि है . इस अवसर पर भूगोल प्राध्यापक संतन कुमार ने अपनी आशु रचित कविता भी सुनाई . हिंदी-परिषद् के संयोजक डॉ.रामप्रकाश कुशवाहा नें उन्हें अज्ञेय द्वारा प्रशंसित समर्थ कवि बताया.


राजेन्द्र राजन (वाराणसी के एवं दिल्ली प्रवासी ) की कविताएँ मुझे क्यों प्रिय हैं जब इसके कारणों पर विचार करता हूँ तो मुझे कई कारण दिखाई पड़ते हैं .सबसे बड़ी बात यह है कि वे अपरिहार्य अभिव्यक्ति के कवि हैं .उनकी कविताएँ एक मितभाषी व्यक्ति की कविताएँ हैं .एक ऐसे कवि-व्यक्ति की कविताएँ हैं जो अनावश्यक कुछ भी बोलना पसंद नहीं करता .या बोलता भी है तो बोलने की सार्थकता के तलाश में धैर्य की अंतिम सीमा तक चुप रहता है .लेकिन यह चुप्पी अज्ञेय का आभिजात्य मौन नहीं है बल्कि देशज-प्रकृत मनुष्य की वह सहज स्वाभाविक संवेदनशील और शिष्ट चुप्पी है जो बहुत-कुछ बुरा लगनें के बावजूद अपने क्षोभ और बोध को किसी निर्वैयक्तिक निष्कर्ष तक पहुँचने और पहुँचाने के लिए बचाए रखना चाहता है .इस तरह उनकी कविताओं पर मेरा दूसरा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि वे वैयक्तिक समस्याओं का भी निर्वैयक्तिक समाधान और परिणति चाहती हैं .राजेंद्र राजन के पास समाज रूपी समुद्र में उठने वाली एक-एक लहरों की तीव्रता और चरित्र दर्ज है .उनकी कविताएँ तथाकथित इतिहास-निर्माता संगठनों के नासमझ भीड़-विवेक और चरित्र को बार-बार प्रश्नांकित करती हैं .उनके स्वार्थों और उनके दावों की पोल खोलती तथा उन्हें बेनकाब करती हैं . 
राजेंद्र राजन की कविताओं में उपस्थिति विशेषता सामान्य मनुष्य की ओर से उसके पक्ष और उसकी मुद्रा में प्रस्तुत जीवन और समाज का असामान्य या विशेष है .उनकी कविताओं में आत्मानुभूति का जो शिल्प मिलता है वह इसलिए इतना अनूठा ,विरल और विश्वसनीय है कि वह उनके जिए और हुए का ही सृजनात्मक रूपांतरण है .उनके कवि व्यक्तित्व का ही काव्यात्मक विस्तार है .वे अपनी कविताओं को सजग रूप से पेशेवर कलात्मक उत्पाद बनाने से बचाते दिखते हैं तो इसका रहस्य बाजार की भीड़ संवेदना की पहचान और उसके दुहराव की निरर्थकता से बचने की उनके रचनाकार की सजगता में है .
कल रविवार २ अक्टूबर को ४ बजे अपरान्ह से तुलसी पुस्तकालय भदैनी में आयोजित अपने प्रिय कवि के एकल काव्यपाठ में आप सभी सुधी मित्र एवं श्रेष्ठ -जन सादर आमंत्रित हैं .

Tuesday, 27 September 2016

प्रभाकर श्रोत्रिय

स्वर्गीय प्रभाकर श्रोत्रिय जी नें एक बार मुझे "साक्षात्कार" में और एक बार "नया ज्ञानोदय" में प्रकाशित किया था .सिर्फ दो बार ही मैंने उन्हें कुछ प्रकाशनार्थ भेजा भी था. मुझे नहीं मालूम उन्होंने मेरा क्या पढ़ रखा था कि जब तक भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रहे मुझे प्रतिवर्ष भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान-समारोह का आमंत्रण-पत्र भिजवाते रहे .यह दूसरी बात है कि तब मैं मुहम्मदाबाद जैसे अराजक क्षेत्र में स्थित राजकीय महाविद्यालय का मुख्य शास्ता भी था. अब तो मुहम्मदाबाद क्षेत्र भी बहुत सुधर गया है.तब मेरे एक दिन के हटने के नाम पर ही प्राचार्य और सहयोगियों का ब्लड प्रेशर बढ़ जाता था. मैं उस आमंत्रण को बहुत महत्त्व देने की स्थिति में भी नहीं था. तब ऐसा भी नहीं सोच पाया कि उनके सम्मान का लाभ उठाकर भारतीय ज्ञानपीठ से कोई पुस्तक ही प्रकाशित करा लूं..
बाद के अनुभव एवं घटनाक्रम से मैंने पाया कि जैसे कभी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज पारिवारिक कांग्रेस में बदल गयी है वैसे ही राष्ट्रवादी व्यापारियों के बड़े सम्मानित संसथान भी नयी पीढ़ी के उत्तराधिकारी व्यापारी घरानों के सम्मान-वृद्धि की दूकानों में बदल चुके हैं .,जिन्होंने न्यास भावना वाला अपना नैतिक स्तर और पेशेवर शुद्धता खो दी है . बहुत सी चीजें तो केजरीवाल के झाडू से भी नीचे चली गयी हैं और सत्व को शायद नए सिरे से गावों-गलियों में बीजने एवं शून्य से बोने-बनाने का वक्त आ गया है . अधिकांश बड़ी संस्थाएं और नामी प्रकाशन-गृह अपने पतनोंमुख दौर में संबंधों के आधार पर लेखकों का चयन करते हुए पाठकों को सिर्फ गुमराह करने और उनके साथ धोखाधड़ी करने के अड्डे मात्र बन कर रह गए हैं .
हिंदी के हवलदारों नें भी व्यापारिक घरानों से गठबंधन कर आलोचना का जो दंड-विधान निर्मित एवं प्रचारित किया उसने हिंदी के नए लेखकों में भविष्योन्मुख सृजनशीलता की आधार कल्पनाशीलता पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया .भविष्य-चिंतन को राजनीतिक दलों से जोड़ दिया गया .पूर्व-निर्धारित आदर्शों के आर्डर पर आधारित रचना को संस्थागत अथवा जातीय समूह की सामाजिक दुर्बलता के मनोविज्ञान द्वारा नियंत्रित किया गया . .इससे फार्मूला लेखन को बढ़ावा मिला और रचनाएँ उबाऊ एवं पूर्वानुमान की शिकार होकर पठनीयता खोती चली गयीं . रचना करना इतना आसान देखकर भारी संख्या में पाठकों नें पढ़ना छोड़कर लिखने के लिए कलम पकड़ लिया .यह नव-रचनात्मक रीतिकाल भी एक कारण है कि हिंदी में जितना लिखा जा रहा है ,उतना पढ़ा नहीं जा रहा है .
श्रोत्रिय जी के ही एक बड़े प्रकाशन संस्थान से हटने के बाद उदात्त के स्थान पर अनुदात्त के प्रचारक एवं चर्चित जनरुचि विद्रूपक (अ) दौर के साहित्यकार जब निदेशक पद पर आरूढ़ हुए तब मेरी दिलचस्पी ही ऐसे संस्थानों से प्रकाशित होने में समाप्त हो गयी थी.यह एक तथ्य है कि हिंदी में यथार्थवाद-प्रकृतवाद के नाम पर भारी मात्रा में अश्लील और मनोविकृत साहित्य खपा दिया गया है .क्योंकि ऐसा प्रगतिशीलता के नाम पर किया गया -इसलिए रूचि-दोष को कभी प्रश्नांकित नहीं किया गया .जबकि लोक में रूचि-दोषी व्यक्ति के लिए 'लंठ' जैसा विरुद पहले से ही उपस्थित है .रूचि-दोषी साहित्य के उचित प्रतिरोधपूर्ण बहिष्कार के लिए 'हिंदी समालोचना में लंठ-साहित्य की अवधारणा' एक सैद्धांतिक जरुरत लगती है .
मुझे नहीं लगता कि बाजार से समझौता कर कोई अच्छा साहित्य रचा जा सकता है या फिर किसी किताबी मधुशाला के पियक्कड़ प्रभारी किसी रचना को अपने दंभ से महान बना सकते हैं .सच तो यह है कि कुरुचि-पोषी औसत एवं सामान्य कृतियाँ प्रकाशन संस्थानों और समाज दोनों का ही स्तर गिराती हैं. किसी भी साहित्य की सार्थक सामाजिक भूमिका लोक की संवेदना और अभिरुचि के परिष्कार में ही हैे,ऐसा मुझे लगता है.पतनकारी लोकप्रियता कभी भी साहित्य की श्रेष्ठता का प्रतिमान नहीं बन सकती.
अपने दूसरे दौर की पहली पुस्तक प्रभाकर श्रोत्रिय् जी की स्मृति को समर्पित करने का मैंने निश्चय किया है .अपनी आत्मीय श्रद्धांजलि के रूप में.उनकी स्मृति को सादर नमन....

Thursday, 22 September 2016

विचारणीय प्रश्न

 कोई जनसँख्या यदि अलग ढंग से जीने की जिद करती है तो उसे अलग राष्ट्र चाहिए .पाकिस्तान बनाने की मांग इसलिए मान ली गयी थी कि उस मांग को पूरा करने वाली ब्रिटिश सत्ता की यह अपनी मातृभूमि नहीं थी.उन्हें लूटा हुआ ही मुफ्त में बांटना था. हुर्रियत आदि मुस्लिम काश्मीरी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि इस बार वे भारतीय जनता से सांप्रदायिक आधार पर उसकी मातृभूमि ही मांग रहे हैं आतंकवादी हिंसा का सहारा लेने पर .सत्ता को भी फासिस्ट शैली के बल-प्रयोग का बहाना मिलेगा . किसी भी पक्ष के उन्माद की स्थिति में इससे घातक परिणाम निकल सकते हैं.पडोसी को भी समझना चाहिए कि अब और पाकिस्तान बनना संभव नहीं .

 एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि क्या इस्लामी कौम बढ़ती जनसँख्या को कम करने में आधुनिक उपाय नसबंदी आदि का इश्तेमाल करने के स्थान पर जेहादी हत्या और आत्महत्या को ही जायज ठहराएगी ? जब जन्म दर अनावश्यक रूप से अधिक होगा और जीवन कठिन होगा तो स्वाभाविक है कि बढ़ते तनाव के साथ हत्या और आत्महत्या की घटनाएँ भी बढ़ेंगी .यह भीएक कारण हो सकता है जो वैश्विकस्तर पर इस्लाम केअनुयायी जहाँ देखो वहीँ मरने के लिए मारने चल दे रहे हैं.उनके उन्माद को दूसरे समुदायों को भी भुगतना पड़ रहा है. इस्लामी देश यदि जनसँख्या -नियंत्रण के आधुनिक वैज्ञानिक उपाय नहीं अपनाएँगे तो कुदरत विवश होकर उनके धर्म-ग्रन्थ में दिए गए क़यामत के दिन लाएगी.उनके इतिहास-प्रवाह का निर्णय उनके हाथ से निकलकर प्रकृति के हाथों में चला जाएगा . उनके इतिहास का चक्र भी प्राचीन काल जैसी तनावपूर्ण स्थितियों में जा सकता है. नसबंदी विहीन प्राचीन प्राचीन काल में तो भारतीय नायक श्रीकृष्ण नें इस नुस्खे को अपने कुल पर ही आजमा दिया था-धरती का भार कम करने के नाम पर .
निरंकुश बढ़ती जनसंख्या के कारण कहीं वैसी ही आदिम नियति का सामना आतंकवाद के निर्यातक देश तो अपने अचेतन में नहीं कर रहे हैं ? आसान वैज्ञानिक विधियाँ छोड़कर जनसँख्या -नियोजन का इतना हिंसक और क्रूर आदिम तरीका ! अधिक सुरक्षित आधुनिक वैज्ञानिक विधियों के होते हुए भी ! कहीं पाकिस्तान,बंगलादेश और अन्य इस्लामी देशों के भी आतंकवादी राष्ट्र बनने का अचेतन रहस्य वहां की परिवार-नियोजन विहीन अनियंत्रित जनसँख्या वृद्धि में ही छिपा तो नहीं है !

Saturday, 13 August 2016

रामस्वरूप चतुर्वेदी पर महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की पुस्तक

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग धीरेन्द्र वर्मा जैसे भाषावैज्ञानिकों की चिंतन परंपरा का विकास राम स्वरूप चतुर्वेदी जैसे आलोचकों के माध्यम से आधुनिक काव्य भाषा के विश्लेषण तक जाता है.काव्यानुभूति की जगह संवेदना शब्द का प्रयोग भी उनकी आलोचना में महतव पूर्ण है,जो कि आधुनिक मनोविज्ञान से लिया हुआ शब्द है.चतुर्वेदी जी इलाहाबाद में परिमल के संस्थापक सदस्यों में से रहे हैं.उनकी सामाजिक पहचान अज्ञेय का मित्र आलोचक होने के कारण भी रही है. शीतयुद्धकालीन परिवेश में जब प्रगतिशीलों की रूस-समर्थक लाबी अज्ञेय को भारतीय नहीं बल्कि अमेरिका समर्थक मानती थी-रामस्वरूप चतुर्वेदी का अज्ञेय के प्रति समर्पित आलोचक कर्म ऐतिहासिक महत्त्व का ही कहा जाएगा.
आज के जातीय और परंपरावादी माहौल में समाजशास्त्रीय आधार पर यदि विश्लेषण करें तो भारतीय सन्दर्भ में यह कम प्रगतिशील नहीं कहा जाएगा कि आलोचक और कवि रूप में दो ब्राह्मण कुल में जन्मे रचनाकार आधुनिकता के प्रभाव में व्यक्तित्व की स्वाधीनता का प्रश्न उठा रहे थे. यह देखते हुए कि भारतीय जातीय सामंतवाद में ब्राह्मण वर्ग की परंपरागत भूमिका सामंत और ईश्वर के पक्ष में व्यक्तित्व के विसर्जन और समर्पण की रही है.आज भारतीय संस्कृति के नामपर उसी सामंती सांस्कृतिक तंत्र को भारतीय मूल के लोगों पर थोपने की कोशिश एक पार्टी कर रही है- समय और इतिहास की घडी को पीछे की ओर ले जाने के प्रयास के रूप में. ऐसे में अज्ञेय का यह क्हते हुए कि मैं उस शक्ति से अभिभूत हूँ जो मेरे भीतर व्याप्त है-सामंतवाद की धार्मिक संरचना का भी खुला अस्वीकार ही था. अज्ञेय की इस प्रगतिशीलता को अनदेखा करते हुए उनके समकालीन वामपंथी उनको सीधे मास्को में देखने की अपेक्षा से ग्रस्त थे .इसीलिए पुराने वामपन्थिओ को अज्ञेय की क्रन्तिकारी प्रगतिशीलता समझ में नहीं आयी..कुछ ऐसी ही बातें मैं अनुज महेंद्र प्रसाद कुशवाहा की साहित्य भंडार,इलाहाबाद से प्रकाशित पुस्तक " रामस्वरूप चतुर्वेदी : स्मृति एवं संस्मृति " के ७ अगस्त को संपन्न लोकार्पण समारोह के द्वितीय सत्र में रखने का प्रयास किया. यद्यपि यह सच है कि स्वयं रामस्वरूप चतुर्वेदी भी प्रतिरोधी राजनीतिक संकीर्ण विचारशीलता के शिकार थे. उनकी आलोचना कांग्रेसी युग की वर्जनशीलता की शिकार है और सामाजिकसंघर्ष और न्याय-अन्याय के मुददों से बच-बचाकर अभिजात्य की भव्य-मुद्रा का कूट छवि-निर्माण की परियोजना के साथ चलती है.इसके बावजूद वह बहुत सीमा तक शिष्ट होने से क्षम्य है.साथ में साथी दिनेश कुशवाह और हेरम्ब चतुर्वेदी के साथ मंच की कुछ तस्वीरें महेंद्रप्रसाद के वाल से...

Monday, 1 August 2016

बबर बन्दर की विकास-गाथा

मनुष्य नें जिन पशुओं को पालतू बनाया है उनमें से कुछ के भाई-बंधु अब भी जंगली रूप में भी हैं- जैसे जंगली घोड़े जिन पर सवारी नहीं की जा सकती, जंगली भैंसें जिनके सींग अधिक डरावने हैं. अफ्रीका के जंगली हाथी,कुत्ते जिनके नजदीकी रिश्तेदार जंगली कुत्तों और भेड़ियों के रूप में अब भी जंगली रूप में मौजूद हैं. आश्चर्य यह है कि सिर्फ गाय प्रजाति ही जंगली अवस्था में नहीं मिलती. उनके पुरखों को आदमी नें जंगल में छोड़ा ही नहीं. पालतू भैसों की सींग भी जंगली भैसों से बिलकुल अलग तरह की होती है.उनकी प्रकृति गुस्सैल अधिक है. इन शाकाहारी जंगली जानवरों को पालतू बनाने में मनुष्य का बन्दर प्रजाति का होना बहुत काम आया होगा- उसके हाथों, उँगलियों और अंगूठों के विकास ने उसे धरती का बादशाह बना दिया .ग्रीष्म ऋतू में घास की कमी के बाद आदमी की करुणा जागी होगी और उसने मुफ्त में ऊँचे पेड़ो की हरी पत्तियां गिरा कर कई पशुओं को अपना ऋणी बना लिया होगा. पहले अपने लिए बाड़े बनाकर अपनी जान बचायी होगी फिर अपने पालतू पशुओं को भी शरण दिया होगा .कुत्तों के भौकने वाले गुण को पहचान कर उससे अपना भोजन बांटा होगा और उसकी सहायता से सुरक्षित सोना सीख होगा जैसा कि आज भी पशु-पालक करते हैं. जंगली अवस्था नें मनुष्यों के पूर्वजों को बबर शेर जैसी दाढ़ी नें भी उसे भरपूर आत्म-विश्वास दिया होगा. सच पूछा जाय तो मनुष्य एकमात्र बबर बन्दर है.. जंगली अवस्था में उलझे लम्बे बालों के कारण पूर्वज स्त्रियों और पुरुषों दोनों की ही पतली गर्दन अच्छी तरह ढँक- छिप गयी होगी. इससे शेरो न को भी मनुष्य का शिकार करने में मुश्किल हुई होगी. फिर उसने दो पैरों पर चलाना सीखकर अपना सर आसमान में उठा लिया होगा.शेरनियां शिकारकरने का जो ट्रेनिग देती हैं उसमें चोपयों को दौड़कर उनका गला घोंट कर मारना मुख्य है .अबतक बबर बन्दर दो- पाया हो चला था. शिकारी पशुओं की ट्रेनिग चौपायों के शिकार की होती है. अब उसने दो पैरों को हाथों में बदल कर लट्ठ भी उठा लिया था.अब उसका सामना दुनिया का कोई पशु नहीं कर सकता था. अब तक वह पशुओं का सरगना हो चूका था.जब शिकारी पशुओं नें भी उससे हार मान लिया तो उसने स्वयं मनुष्य का ही शिकार करना शुरू कर दिया.उसने शेरो की दहाड़ का सामना करने के लिए ही दुनिया का पहला नगाडा बनाया होगा. जब जोरसे पीटाा होगा तो उसकीआवाज सुन कर शेर ही दहाड़ना भूल गया होगा और डरकर जंगल से भाग गया होगा. सारी दुनिया में मनुष्य जाति ड्रम बजाकर शेरो को डराती रही है. फिर शंख और सींगा बजा कर भेडियों और सियारों को भी डरा दिया होगा. यह कितने गर्व की बात है कि हम यदि सैलून में जाना छोड़ दें तो बबर बन्दर हो जाएंगे. जब आदमी बबर बन्दर रहा होगा तो शेर भी उससे डर जाता होगा कि इसके बाल तो हमसे बड़े हैं.


रामप्रकाश कुशवाहा
०१.०८.२०१६

Sunday, 31 July 2016

शास्त्र-चर्चा: एक नए स्वर्ग के लिए

जो सबसे अच्छे थे अब तक पैदा ही नहीं हुए शायद
कम अच्छे मारे गए गर्भपात में
कमतर अच्छे आकर भी छोड़कर चले गए दुनिया......
फिर हम आए हम !
क्या पता पुण्य क्षीण होने पर
देवताओं नें स्वर्ग से गिराए थे धक्के मारकर
या फिर हम कीट-पतंगों से रेंगते हुए
पिछले दरवाजे से यहाॅं तक पहुॅंचे !
हमारे जन्म पर शास्त्रों ने आशीर्वाद नहीं कहे
अभुक्त थे जो हम-गिरे हुए लौकिक या नारकीय !
स्वर्ग मृत्यु के पार था इसलिए देवता भी नहीं थे हम
और मारे जाने के लिए अभिशप्त
अपने होने से ही प्रमाणित कि मुक्त नहीं हम ।
तो अच्छे लोगों के विरुद्ध निरन्तर घृणास्पद होती जाती नियति में
शास्त्रसम्मत यही है कि हममें से कोई मुक्त नहीं हैं
अपने पवित्र संकल्पाों और प्रार्थनाओं के बावजूद
हम सभी पापी हैं और कुकर्मी.......
न होते तो हमारा जन्म ही क्यों होता- कहते हैं शास्त्र !
हम सब विद्रोह के लिए अभिशप्त तिरष्कृत-त्रिशंकु की सन्ताने हैं
और हमारी मुक्ति सिर्फ विश्वामित्र बनने में है........
हमारे लिए प्रतिबन्धित स्वर्ग की अश्लील नागरिकता के समानान्तर
एक बार फिर रचने में है एक नया स्वर्ग !

रामप्रकाश कुशवाहा
( तरसेम गुजराल द्वारा उनकी पत्रिका "वक्त बदलेगा " में पूर्व-प्रकाशित)

माॅं नहीं जानती

माँ कहती हैं-जब तू छोटा था....कितना मोटा था !
जब तक पलटती नहीं थी तुझे अपने हाथों
बिना करवटें बदले लेटा रह जाता था तू !
मोटे तकिया की तरह.....
अब तो समय के पंख लगाकर उड़ गया हूॅं मै
उसकी पहुॅंच से बहुत दूर.....
माॅं की यादों मे एक छोटा-सा नक्शा छोड़कर बचपन का
उसे पता नहीं है कि इस बीच मैने कितने किए अपराध
कितनी दफाएं लगा दी हैं जिन्दगी ने मेरे जीने के विरुद्ध
या कि कितने व्यापक संहारों का एकमात्र जीवित साक्षी हूॅं मै
उसकी समझ से परे है मेरी भाग-दौड़
मेरी अकुलाहटें और मेरा रोना-जो मेरे बचपन की तरह
मेरे सपाट चेहरे के भीतर कहीं खो गया है.....
माॅं को मालूम नहीं हैं आइन्स्टीन के सिद्धान्त
ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने और उसके सिर्फ
रूप बदल लेने के वैज्ञानिक सिद्धान्त...
उसके लिए चिन्ता का विषय है मेरा दिनोदिन दुबला होते जाना
उसके लिए समझ से परे है मेरी चिन्ताएं
मैं वर्षों से प्रयास कर रहा हूॅं कि चिड़िया की तरह भूल जाए माॅं
उसे छोड़कर उड़ आए इस बच्चे को......
किसी फौजी की बहादुर माॅं की तरह रख ले अपने दिल पर पत्थर
कि मुझे भी तो जूझने हैं कितने मोर्चे
लड़नी हैं कितनी लड़ाइयाॅं.....जीतने हैं युद्ध
इस छोटी-सी जिन्दगी में !
माॅं नहीं जानती-ऊर्जा के कभी भी नष्ट न होने
और सिर्फ रूप बदल लेने का नियम
नहीं तो समझा लेता उसे
कि दुबलेपन के बावजूद नष्ट या व्यर्थ नहीं हुआ होगा
मेरा निरन्तर घटता द्रव्यमान !
या अब तक वही अपना रूप बदलकर बन गई होती धरती
और मैं दूर-दूर तक विचरण करता
अपनी प्यारी माॅं की ही गोद में.......

रामप्रकाश  कुशवाहा 

हम चाहते हैं...

तुम्हारे जिए और दिए हुए सच
हमारे प्रश्नों से घायल हो चुके हैं
हम तुम्हारी गलतियों-मूर्खताओं को वैसे ही जानते हैं
जैसे आने वाली पीढ़ियाॅं जानेंगी हमारी मूर्खताओं को......
हम तुम्हारी दी हुई निष्ठाओं से छले गए हैं
हम घर से बेघर समय से असमय हुए हैं
तुम्हारी दी हुई दाढ़ियाॅं नोच डालने की हद तक
खुजली पैदा करती हैं हमें लहूलुहान करती हुई.....
हम नहीं चाहते कि हमारा नाम
तुम्हारी बनाई हुई जातियों के ईमानदार कुली के रूप में लिखा जाए...
हम अपने वंशजों को अपना भारवाहक बनाने वाली
तुम्हारी हिंसक परम्परा के खिलाफ हैं
हमें नहीं चाहिए आदमी की खाल उधेड़कर
उसके लहू में डुबोकर लिखे गए तुम्हारे सनातन दिव्य ग्रन्थ.....
हम तुम्हारी सभी को मारकर जीने वाली अमरता के खिलाफ हैं
तुम्हारा हमारे समय पर लदकर बलात् जीवित रहना
एक अप्राकृतिक अपराध है
हम न्याय चाहते हैं.....हम तुम्हारी मृत्यु चाहते हैं पितामह!
हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियों को भी
नयी सभ्यता के लिए अपना नया पितामह चुनने का अधिकार मिले
बताओ ! तुम्हारी मृत्यु कैसे होगी ?

रामप्रकाश कुशवाहा

Friday, 22 July 2016

यह जंगल ...

वे......जो पूरी तरह स्वतन्त्र  हो गए  हैं
अपने कर्मों का बबूल-बीज छींटते हुए .....

अभी ऋतू नहीं आयी बरसात  की
कब तक उगनी है काँटों की फसल
आज,कल या फिर वर्षों बाद
कब तक चुभनी है काँटों की फसल !

यह खुनी जंगल उन लोगों नें पैदा किया था
जो पूरी तरह निश्चिन्त थे
कि अब उन्हें
इन रौंदी हुई पगाडंडियों से
कभी भी वापस नहीं लौटना है ....

वे जो पूरी तरह निश्चिन्त थे
हाँ वे ही ...वे ही .....वे ही
अपनी अगली पीढ़ियों का
बहता हुआ लहू मांगने के लिए
काँटों का हरा-भरा जंगल छोड़ गए हैं
हाँ वे ...जो पूरी तरह निश्चिन्त  थे. 

Tuesday, 5 July 2016

इस्लामी आतंकवाद का सामजिक कारण

अधिकांश लोग यह समझते हैं कि इस्लामी आतंकवाद की समस्या का केवल मजहबी चेहरा ही है जबकि मैं उसे धार्मिक नहीं बल्कि संस्कृतिक और सामाजिक भी मानता हूँ.परंपरा के प्रति अपनी ईमानदार सामूहिक वफ़ादारी के कारण आधुनिकता से समायोजन में असमर्थ विश्व का बड़ा जन-समुदाय अपने व्यवहार से मध्ययुगीन मानवीय पर्यावरण की पुनर्सृष्टि करने लगता है.वह सिर्फ विचारधारा के कारण ही आतंकवादी नहीं बनता बल्कि इसलिए भी कि मुसलमान युवक अन्य मतावलंबी युवकों की तुलना में यौन-यातना (इन युवको को उनमें प्रचलित खतना प्रथा के कारण भी कुछ असामान्य उत्तेजनाओं से गुजरना पड़ता है.न्यूरो विटामिनों का उचित पोषण नहीं मिला तो उनमें से अधिकांश चिडचिडे और मनोरोगी हो जाते हैं' यौन-यातना से मेरा आशय यह भी है.जिसे मैं खुलकर लिखना नहीं चाहता था. सरकार को चाहिए कि मुसलमानों में विटामिन बी की आपूर्ति मुफ्त करे) एवं प्रेम यातना के अधिक शिकार होते हैं.एक ही माता की सहोदर संतानों में विवाह वर्जित होने के बावजूद अपने ही कुटुंब में हीे विवाह होना संभव होने के कारण मुस्लिम युवक बचपनके बाद कम उम्र से ही अपने ही परिवार में अपनी जीवन - संगिनी ढूँढ़ने का प्रयास करने लगते हैं.दूसरी ओर परदा प्रथा के कारण चाचियाँ और मौसियाँ भी कमर कस कर लड़कियों की निगरानी में लग जाती हैं कि नालायक किसी तरह सफल नहीं हो पाए. इस द्वंद्व-युद्ध में हारेे हुए एवं प्रेम में घायल लडके आत्महत्या करने के लिए आतंकवादी बनने निकल जाते हैं. एक अन्य कारण यह है कि अंग्रेजी शिक्षा के ज़माने में मदरसों में धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने वाले लडके एक दिन पाते हैं कि विवाह की मंडी में उनकी तो कोई पूछ ही नहीं है.उनके पास निराश होकर आतंकावाद्दी बनकर बन्दूक के बल पर लड़कियों का अपहरण करने का ही एक मात्र रास्ता बचता है.इस्लाम में जिहाद की संस्कृतिक अवधारणा उसके व्यर्थता-बोध को सिर्फ प्लेट फार्म ही उपलब्ध करता है . यह जातीय या कौमी धरातल पर शहादत को महिमा-मंडित करने जैसा है. आधुनिकता के परिवर्तनों से गुजर रहा मुस्लिम समाज अपनी वैयक्तिक और सामुदायिक कुंठा को ऐसी ही हत्याओं द्वारा दूरकरना चाहता है. ऐसा अरब आदि में देखने को मिलता है और पाकिस्तान तथा भारत में भी. अन्य समुदायों में दूर शादी होने की प्रथा के कारण या फिर खुलेपन वाले पश्चिमी समुदायों में ऐसी कुंठा नहीं होने से युवक आतंकवादी कम बनते हैं.उनकी इस कुंठा का खामियाजा अन्य समुदाय की युवतियों को उठाना पड़ता है. कठोर वर्जनाओं में पालने के कारण खुलेपन में जीती हुई दुनिया की अधिकांश स्त्रियों को खलनायिका के रूप में देखते हैं अभी-अभी बंगलादेश में आतंकी हमले में मारी गयी तारिषीी की हत्या के पीछे भी ऐसा घृणा-भाव हो सकता है. शिक्षाके कम स्तर के कारण भीं धनोपार्जन के बाद ऐसे युवक चौराहों पर युवतियों को घूरनें और छींटाकसी करते देखे जा सकते हैं.

Saturday, 25 June 2016

अणु- व्रत

डॉ.दीपा सिंह 

आत्म-परिष्कार एवं आत्मनियंत्रण पर बल देने के कारण जैन धर्मं नें साधना के लक्ष्य के रूप में मानवीय पुरुषार्थ को न सिर्फ अंतर्मुखता दी है बल्कि सारी दुनिया को जीतने के स्थान पर स्वयं को जीतने की अनूठी अवधारणा भी विश्व को दी है .जैन-धर्म सांप्रदायिक संकीर्णता या कट्टरता में नहीं बल्कि अनेकांतवादी दर्शन होने के कारण सामाजिक स्तर पर अत्यंत शिष्ट ,सौम्य ,उदात्त एवं दूसरों पर अपनी इच्छाएँ न थोपने वाला अनूठा धार्मिक संप्रदाय है . यह भारतीय दर्शन की नास्तिक परंपरा की तीन प्रमुख धाराओं में से एक है .लगभग छठी शताब्दी ईसापूर्व महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित यह विचारधारा मनुष्य को उसकी आतंरिक दुर्बलताओं से ऊपर उठाकर उसकी आत्मा के लिए संपूर्ण स्वामित्व एवं मुक्ति की ज्ञानात्मक व्यवस्था देती है .
        वैदिक युग की बलि -प्रथा जैसी हिंसक प्रथाओं वाले भारतीय अतीत को देखते हुए तथा आज के किसी भी मत के अनुयायी भारतीय मूल के किसी भी व्यक्ति में जैन धर्म के उपदेशों -आदर्शों का चेतन-अवचेतन अनुपालन देखा जा सकता है .जैन धर्म केवल सांसारिक हिंसा को ही वर्जनीय नहीं मानता बल्कि मानसिक हिंसा को भी वर्जनीय मानता है .उसके अनुसार मन में किसी के प्रति बुरा विचार रखना भी हिंसा है .इस तरह जैन धर्म मनुष्य को ही भगवान में रूपांतरित करने की विद्या या पद्धति ही है .महावीर स्वामी की सत्य ,अहिंसा ,अपरिग्रह ,ब्रह्मचर्य ,क्षमा ,धर्म और निर्वाण सम्बन्धी उपदेशों में व्यक्त अवधारणाओं को देखें तो उन्होंने मानवता के पर्यावरण को अच्छा बनाने वाला दर्शन विश्व को दिया है जिसमें त्याग और संयम ,प्रेम और करुणा तथा शील और सदाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है .
      अणुव्रत का सम्बन्ध जैन-धर्म के इसी अपूर्व जीवन-दर्शन और संप्रदाय से है .यद्यपि जैन धर्म के लिए अणुव्रत की परिकल्पना नई नहीं है .अणुव्रत शब्द में अणु शब्द का अर्थ लघु ,सुक्ष्म या छोटा ही होता है ,इसी तरह व्रत शब्द से आशय है वैसा संस्कार ,जिसमें संयम या परिहार की संकल्प भावना हो .इस तरह  व्रत इन्द्रियों की आसक्ति पर नियंत्रण एवं अनुशासन की साधना है .  शब्दार्थ के अनुरूप ही अणुव्रतों की व्यवस्था श्रावकों के लिए की गयी है.श्रावक से तात्पर्य  सामान्य भाषा में कहें तो गृहस्थ जैन धर्मावलम्बियों से है .जो जैन साधुओं की तरह अहिंसा आदि व्रतों को संपूर्ण रूप में स्वीकार करनें में असमर्थ किन्तु त्यागपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा रखने वाले ,गृहस्थ जीवन की मर्यादा का पालन त्यागवृत्ति के साथ करने वाले  

६७वा गणतंत्र दिवस

            डॉ.दीपा सिंह 

अभी -अभी हमारे राष्ट्र नें अपना ६७ वां राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस मनाया है। १९५० में आज ही के दिन १९४७ में अंग्रेजों की अधीनता से मुक्त होने के लगभग तीन वर्ष बाद हमारे देश नें अपना नया संविधान अंगीकार या आत्मार्पित किया था। २६  जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि १९३० में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। २६  नवम्बर १९४९ को भारतीय संविधान सभा द्वारा इस संविधान को अपनाये जाने के बाद २६ जनवरी १९५० को इसे एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के साथ राष्ट्र पर लागू किया गया था। संविधान का पहला ही वाक्य है 'हम भारत के लोग.'
         हम जितने भी पर्व या उत्सव मानते हैं ,उनमें अधिकांश पुराने ज़माने के हैं ,जिन्हे अलग-अलग जाति -धर्म के लोगों ने अपनी जाती या धर्म के लोगों पर लागू किया था। प्रायः देखा जाता है कि लोग जितने मन से अपने धार्मिक पर्व मानते हैं ,उतने मनोयोग से अपने राष्ट्रीय पर्वों को नहीं मनाते। यह अच्छी बात नहीं है। 
          भारतीय संविधान को एक समतामूलक लोककल्याणकारी राष्ट्र की परिकल्पना के साथ निर्मित किया गया है। हमारा संविधान सभी को आश्वस्त करता है कि किसी के भी साथ उसकी जातीय -धार्मिक पृष्ठभूमि के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जाएगा। इसके लिए नीति-निर्देशक तत्त्वों को भी संविधान में दर्ज कर दिया है। भारत की हर चुनी हुई सरकार का कर्तव्य है कि  वह नीति निर्देशों का पालन करे। 
        हम सभी के जीवन की सार्थकता या उपयोगिता अपने राष्ट्र के निर्माण एवं विकास में अपना योगदान देने में है। इसके लिए हमें अपना अधिक से अधिक बौद्धिक -मानसिक विकास करना होगा। हम वैज्ञानिक ,नेता ,शिक्षक ,व्यवसायी या उद्योगपति बनकर  भी राष्ट्र की सेवा कर सकते हैं। इसके लिए हमें अच्छी शिक्षा ग्रहण करनी होगी और कौशल अर्जित करना होगा। 
          इस अवसर पर हमें अपने पूर्वजों के उस संघर्ष को याद करना होगा ,जिसे उन्होंने देश को आजाद करने के लिए किया। उनके त्याग को और उनके अपमान को भी याद रखना होगा ; जिससे हम आजादी का मूल्य समझ सकें।  हमारे देश में एक बड़ी समस्या आज भी सीमा पर से की जाने वाली साजिशों की है।  कुछ विदेशी शक्तियां नहीं चाहतीं की भारत में शांति बनी रहे। हमें ऐसी साजिशों को विफल करना होगा। अंग्रेज जब भारत से जाने लगे तो उन्होंने इस दर से की इतना बड़ा देश भविष्य में विश्वशक्ति बना सकता है ,उसका विभाजन करा दिया। इससे दक्षिण एशिया का भारतीय भूभाग वैज्ञानिक भविष्य को भूलकर सांप्रदायिक हो गया।  इससे आज स्वयं पश्चिम के देश भी सुखी नहीं है। आतंकवाद जैसी समस्याएं पूरे विश्व को चिंतित किए हुए हैं। 
        अपने राष्ट्र और संविधान के प्रति सच्ची निष्ठा का एक बार हम पुनः सामूहिक संकल्प लेते हैं।

ज्ञानी बनने का रहस्य

डॉ.दीपा सिंह 


मनुष्य एक दीर्घ जीवी प्राणी है .उससे अधिक लम्बी उम्र प्रकृति नें समुद्री कछुओं को ही दी है .अधिक आयु  वाला जीवन पाने के कारण न सिर्फ  मानव जीवन का बचपन बल्कि वृद्धावस्था भी अन्य जीवों की तुलना में काफी लंबी होती  है . यही कारण है कि बच्चो और वृद्धों की सेवा और देखरेख को प्रायः सभी संस्कृतियाँ बहुत ही महत्त्व देती हैं .इसे धार्मिक कर्त्तव्य माना जाता  है .
           बचपन में प्रकृति नें हम सभी को प्रबल स्नृति का उपहार  दिया  है .इस आयु में सोचने-विचरने की क्षमता उतनी विकसित  नहीं होती  जितनी कि सिर्फ याद रखने की .देखा  जाता  है कि जानवरों के बच्चे भी अपनी प्रजाति के अन्य जानवरों के बीच अपनी माँ  को भीड़ के बीच भी न सिर्फ पहचान लेते हैं बल्कि उनकी सूक्ष्म विशेषताएँ भी याद रखते हैं . यही प्रकृति-प्रदत्त गुण अपने परिवेश की चुनौतियों के प्रति भी उन्हें सजग बनाता है .
            हमारा  शिक्षा ग्रहण करना भी स्मृति-निर्माण की बड़ी परियोजना की तरह है .अपने पिछले ज्ञान और अनुभव से अर्जित समझदारी के आधार पर ही हम नए ज्ञान की समझदारी विक्सित करते हैं .यह एक श्रृंखलाबद्ध  प्रक्रिया है .कुछ-कुछ वैसा ही जैसे हम नीव बनाए बिना ऊपर की दीवार नहीं खड़ी कर सकते 
                इसमें से कुछ को तो हम परिश्रम जिज्ञासा और ध्यान के आधार पर विकसित  करते हैं और कुछ को अपने भीतर साथ-साथ चलने वाली .जैविक प्रक्रियाओं के आधार पर . जीव वैज्ञानिकों नें पाया है कि हमारी स्मृति के निर्माण में मस्तिष्क के निचले भाग में स्थित हायपोथैल्मस  नमक अंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है .हम जब भी कुछ नया याद रखना चाहते हैं या किसी नए अनुभव से गुजरते हैं  तो हायपोथैल्मस को उस स्मृति के संरक्षण के लिए जगह बनाने हेतु भौतिक रूप से भी बड़ा होना पड़ता  है . यह प्रक्रिया कम्प्यूटर में बिलकुल नया मेमोरी कार्ड लगवाने जैसी ही है . इस लिए बच्चों  ! हमें  पहले से जीरो होते हुए भी ज्ञान के क्षेत्र में हीरो  बनने के लिए चुपचाप पढ़ते रहना चाहिए .आगे का काम प्रकृति स्वयं कर देती है .हम जब अपने परिश्रम ,यातना और अभ्यास से अपने मस्तिष्क को नयी स्मृति बनाने का आदेश देंगे तभी वह हमारे लिए कुछ नया कर सकेगी .इस लिए निरंतर परिश्रमपूर्वक अभ्यास ही भविष्य का ज्ञानी बनने बनाने का रहस्य है .यद्यपि बहुत तनाव ठीक नहीं है लेकिन पढ़ाने से मस्तिष्क की तार्किक क्षमता तो बढ़ती ही है  किसी  नयी समस्या को सुलझाने  की हमारी मानसिक शक्ति भी बढ़ती है ..वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसा मस्तिष्क में भूरा द्रव्य और विद्युत् का स्तर बढ़ने  से होता  है .प्रशिक्षित मस्तिष्क अप्रशिक्षित और आलसी मस्तिष्क की तुलना में अधिक योग्य और समर्थ होता  है .इस तरह सिर्फ अच्चा अंक पाने के लिए ही नहीं बल्कि बुद्धिमान मनुष्य होने के लिए भी निरंतर पढ़ना लाभप्रद है .


Saturday, 28 May 2016

हिंदी आलोचना

आज(२९ जून २०१६ के  जनसत्ता में दिनेश कुमार का आलोचना के संकट पर एक लेख छपा है ,जिसमें चरित्र के संकट को सबसे गंभीर संकट माना गया है .सम्बन्धों पर आलोचना लिखने का गंभीर आरोप है .लेकिन थोडा विचार करने पर मुझे लगा कि दिनेश कुमार जी नें अख़बार या संपादक के संकट को ही आलोचना का संकट समझ लिया है .पूरा लेख सम्पादकीय अनुभव को ही व्यक्त करता लग रहा है .इस समस्या को ऐसे समझा जाना चाहिए .जब कोई फिल्म रिलीज होती है तो किसी को भी पता नहीं होता कि फिल्म अच्छी है या बुरी .शुरूआती दर्शक जिज्ञासा वश जाते हैं और धीरे-धीरे चर्चा शुरू होती है कि फिल्म अच्छी है तो बाक्स आफिस पर हिट हो जाती है और विपरीत चर्चा होने पर फ्लॉप . यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कि लन्दन में पहली बार रेल चलने पर लोगों को रूपए देकर बैठाया गया था .किसी नयी किताब के साथ भी ऐसा ही है .कोई क्यों बिना जाने कि उस कृति को पढ़ाने पर पाठकीय अनुभव क्या निकलेगा -नयी किताबों की भीड़ में पुस्तक को पढ़ते रहने का श्रम करेगा .दिल्ली का मेरा अनुभव यह है कि क्योंकि समीक्षा लिखना द्वितीयक होने से मौलिक लेख लिखने और छपने की तुलना में अधिक आसान होता है इसलिए अधिकांश समीक्षक तो अपने कैरियर के प्रारंभिक दौर में मंहगाई और जेब को ध्यान में रखकर लिख रहे होते हैं .उसके बाद किसी प्रसिद्द और विज्ञापित समझदार से लिखवाने की कोशिश होती है . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो समीक्षक के लिए भी पेशेवर रूप से ही पहला पाठक होना स्वैच्छिक न होकर अनैच्छिक ही होता है. ऐसी स्थिति में एक आदर्श समीक्षक का होना एक सैद्धांतिक कल्पना ही है .अपने लेखन में दिनेश कुमार जी यदि यह सुझाव देते तो अच्छा रहता कि हर अखबार और पत्रिका को अपने यहाँ पत्रकार के साथ-साथ वेतन भोगी समीक्षकों की भी नियुक्ति करनी चाहिए .स्थिति इस लिए भी बुरी है कि सारा मामला हिंदी में समीक्षकों के वकीलों जैसा अनियतकालिक लेखक होने का है .अब अच्छा वकील तो हर कोई करना चाहेगा कि कहीं मुक़दमा ही न हार जाए .मैं व्यक्तिगत रूप से प्रारंभ से ही आलोचक और समीक्षक बनने से परहेज करता रहा हूँ .मैंने १९८९ में पढ़ते समय प्रकाशित अपनी पहली आलोचना पुस्तक का नाम 'दूसरा पाठकनामा 'रखा था .पाठकनामा भी प्रकाशित करने की योजना थी लेकिन नौकरी मिल जाने से अपनी शर्तों पर सोचने में लग गया .जनसत्ता में ही सुरेश शर्मा / अवस्थी ! नें उसकी समीक्षा लिखी थी .बाबरनामा की तर्ज पर मेरे द्वारा प्रयोग किया गया यह नाम आज हिन्दी जगत नें स्वीकार कर लिया है .दैनिक जागरण और शुक्रवार आदि में यह एक सम्मानित स्तम्भ है .पाठकनामा नाम का एक ब्लॉग भी एक सज्जन चला रहे हैं .लम्बे आलस्य के बाद इधर मैंने सोचा है कि जरुरी लेखकों पर एक अपना आलोचनात्मक चयन और पाठ तैयार करूँगा लेकिन पहला पेशेवर पाठक यानि समीक्षक बनना अब भी नहीं चाहता .मैंने कुछ सफल एवं जरुरी लेखकों की सफलता के कारणों की पड़ताल के लिए ही कुछ समीक्षाएं लिखी हैं .जैसे कि इधर शिवमूर्ति जी की .सिर्फ साहित्य के विश्लेषण की समझदारी बढ़ाने के लिए ही .क्योकि साहित्य पढ़ाता हूँ इसलिए ऐसा करना कर्तव्य रूप में जरुरी लगता है .मैं नहीं चाहता कि मेरे सम्पादक मित्र किसी कृति को पहली बार पढ़ने का जोखिम लादें .मुझे दिनेश कुमार के निष्कर्षों के विपरीत रचनाकारों पर संबंधों के आधार पर भी समीक्षा निकाल पाने पर सहानुभूति है .क्योंकि बहुत सी ऐसी पुस्तके और लेखक हैं जिनकी समीक्षाए संबंधों के आधार पर भी नहीं निकलतीं .